मेरे जितने भी अपने थे दूर हमसे हो गए
मेरे जितने भी अपने थे दूर हमसे हो गए
चांद को चाहने वाले भी, सूरज के हो गए
वीरान कर गई बाजार की रौनके उनको
पश्चिम को जाने वाले थे , पूरव के हो गए
कवि दीपक सरल
मेरे जितने भी अपने थे दूर हमसे हो गए
चांद को चाहने वाले भी, सूरज के हो गए
वीरान कर गई बाजार की रौनके उनको
पश्चिम को जाने वाले थे , पूरव के हो गए
कवि दीपक सरल