#सामयिक-
#सामयिक-
■ सब साफ़ हुआ, कुछ सफ़ा करो।।
[प्रणय प्रभात]
वाकई, मान गए साहब, आपके “स्वच्छता अभियान” को। क़सम से, बहुत कुछ “साफ़” हुआ बीते चंद साल में। साफ़ क्या हुआ, ये मानिए कि “सफाया” ही हो गया। बचा-खुचा भी “सफ़ा” हो जाएगा जल्दी। पुख़्ता यक़ीन है मुझे और मेरे जैसे धृतराष्ट्र प्रेमियों को। मन लगा कर पूरा पढ़ लेंगे, तो आपको भी हो जाएगा। वो भी महज 10 मिनट में। जो काम आएगा अगले कुछ साल नहीं, 2047, यानि बूढ़ी आज़ादी की 100वीं सालगिरह तक। बशर्ते वहां तक पहुंचने लायक़ बचे रहें आप और हम। “ग्लोबल वार्मिंग” व “क्लाइमेट चेंज” के साथ साथ खानपान से लेकर सांस और दवा दारू तक में भारी मिलावट के बीच।
मान्यवर! सफ़ाई का मतलब सिर्फ़ “कचरे” से तो होता नहीं है। क्योंकि कचरा सर्वकालिक, सार्वभौमिक, सर्वव्यापी है। पहले से चौथे युग तक। कभी खोपड़ी में तो कभी सड़क पर। ऐसे में आधुनिक बाज़ारवाद व भौतिकतावाद के चलते जितना जाएगा, उससे बीस गुना ज़्यादा वापस आएगा। सट्टा और शेयर बाज़ार की तरह।
अजर-अमर व अविनाशी आत्मा की तरह। धरती ही नहीं, चांद, मंगल, अंतरिक्ष तक। रॉकेट, सेटेलाइट्स व स्टेशन की तरह। जहां-जहां हमारी पींग बढ़ेगी, हमारी पहुंच बढ़ेगी। फिर चाहे आसमानी आंसुओं से बाढ़ आए, भड़का हुआ सूरज तमतमाए या धरती डोले। हमारी अंधी होड़ व बहरी दौड़ के चलते। बहरहाल, बात करते हैं, वहां की, जहां से हमारा जीवन, हमारे सरोकार जुड़े हैं। जीवन भर के लिए।
माननीय! कहना यह है कि आपकी व आपके राजनैतिक पूर्वजों की अतृप्त आत्मा को तृप्त करने व कृतकृत्य होने के लिए मुहीम के नाम पर साल में दो एक बार की जाने वाली सीज़नल सफ़ाई एक नाटक से ज़्यादा कुछ नहीं। हमारे देश के सारे गांव, कस्बे, नगर, महानगर एक पखवाड़े में “इंदौर” तो होने से रहे। देश भर के वाशिंदे तो “इंदौरी” बन नहीं सकते, जो एक दिन, एक हफ़्ते या एक पखवाड़े नहीं, हर दिन, हर पल स्वच्छता के लिए जूझते हैं और जीत भी रहे हैं। अधिकारों के बेशर्म दावों वाले दौर में निरीह नागरिक दायित्वों को अपने बूते आगे रखते हुए। यदि सारे “इंदौरी” होते तो हर बार “इंदौर” ही सबका सिरमौर बन पाता? वो भी आपके जन्म और कर्म-क्षेत्र की राजधानियों को पछाड़ कर। जो हर मौसम में आपकी व देश की साख को बट्टा लगाती हैं पानी भरे गड्ढों में डूब कर। वो भी तब, जब सर्वत्र “विकास” के नाम पर “प्रयास” की डुग्गी दसों दिशाओं में दिन-रात पिट रही है। भीड़ भरी सभाओं से लेकर भाड़ जैसे धधकते चैनलों तक।
अब आप ही सोचिए, साल भर देश के कोने-कोने को “कचरायुक्त” बनाने वाले दस-बीस दिन झाड़ू थाम कर कैमरों के सामने नौटंकी कर भी लेंगे तो क्या कचरा “थर्रा” या “घबरा” जाएगा? सच तो यह है कि गंध मारता कचरा भी अब उन लोगों के किरदार की बास पहचान चुका है, जो साफ़-सुथरी सड़कों पर झाड़ू फेरते हुए फोटो खिंचवाने और “रील” बनवाने के आदी हो चुके हैं। वो भी सिर्फ इसलिए कि शायद उनके कानों को “मुगेम्बो खुश हुआ” जैसा बूस्टर डोज मिल जाए, जो उन्हें सियासत की बेक बेंच से सत्ता के फ्रंट तक ला दे। यह सब नौटंकी न होता, तो दस बारह साल में एक फ़ीसदी देश तो साफ़ हो ही चुका होता कम से कम। सच यह है महाप्रभु, कि कचरा हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुका है। जिसका वजूद हमारे परिवेश से लेकर हमारी खोपड़ी व खोपड़ी में बसी सोच तक समाया हुआ है। सच तो यह भी है कि बिना कचरा-पट्टी मचाए हम सुक़ून से न जी सकते हैं, न मर सकते हैं।
अब आप और आपके जलवों के अनुचर तस्वीरों और वीडियो में सफ़ाई देख कर ख़ुश होना चाहें, तो मर्ज़ी उनकी और आपकी। हम कोई “नारद” तो हैं नहीं, जो “परम् स्वतंत्र न सिर पर कोऊ” बोल कर अपनी भड़ास निकालने का हौसला दिखा पाएं और शामत को घर बुलाएं। इतनी सी चुर-चुर, घुर-घुर भी अपनी उस “फ़क़ीरी” के बूते कर लेते हैं, जिसे न कुछ खोने का भय है, न पाने की आस। मामूली सी लेकिन असली पढ़ाई-लिखाई के करण यह भी पता है कि आईटी, ईडी, सीबीआई “ठन-ठन पाल मदनगोपाल” का कुछ नहीं बिगाड़ सकती। ठीक वैसे ही, जैसे खाक़ी और सफ़ेद वर्दी “नाबालिगों” का। फिर चाहे वो हवस का खच्चर दौड़ाएं या बाप की लग्जरी कार। किसी को मसलें या कुचले। रहा सवाल “हनी-ट्रेप” का, तो उसमें फंसने की उम्र कोसों पीछे छूट चुकी। मन का बूढ़ा विश्वामित्र अब किसी मेनका के झांसे में आने से रहा। अब एआई के कारखाने में कोई नया “फंडा” या “हथकंडा” अलग से ईजाद हो जाए, तो और बात है।
महोदय! साफ़-सफ़ाई केवल इवेंट के नाम पर करोड़ों के बज़ट जारी करने भर से हो जाती, तो मैली हो चुकी राम कृष्ण प्रभु की गंगा-यमुना कब की साफ़ हो चुकी होतीं। जिनकी धाराओं में करोड़ों के पाप के साथ खजाने का न जाने कितना माल बह गया। जिनकी गंदगी मिटाने के नाम पर अरबों का बज़ट मटियामेट हो गया और अब हर बरसात में कीचड़ बन कर लीचड़ सिस्टम की भद्द पिटवाता है। आप चाहें तो इसे “मुद्रा का सफ़ाया” ज़रूर मान सकते हैं। नैतिकता के नाम पर मानना चाहें तो। जो अनैतिकता के दौर में मुमकिन होकर भी लगभग नामुमकिन है। “सड़क का कचरा नाली में, नाली का नाले में, नाले का नदी में, नदी का सागर में।” यही तो आलम है रोज़ की सफ़ाई का। तभी तो आधा घण्टे की बारिश 3 घंटे की बाढ़ ला देती है और घण्टे भर की बरसात सुनामी। सफ़ाई अभियान ईमानदारी से चलाना है, तो कूड़े के ढेर (घूरे) पर जाने को बोलिए ना। जिनके “भाग” अब बारह छोड़ चौबीस बरस में भी नहीं बदल पा रहे। सारी कहावत उल्टी पड़ रही है। घूरे पहाड़ का रूप धारण करने को बेताब हैं और पहाड़ लाज के मारे औंधे मुंह गिरने पर आमादा। विकास के भार से बेज़ार बेचारी धरती कम्प्यमाण होकर रसातल में जाने को आतुर।
सफ़ाई को लेकर कोई सफ़ाई मेरी समझ से तो बाहर है भगवन! दोष आपका या आपके “इवेंट मैनेजमेंट” में माहिर सिस्टम का नहीं, मेरी टूटी-फूटी सी तक़दीर का ही है, जो मैं ग़लती से ग़लत जगह पैदा हो गया। जहां रोज़ सामने वाली आंटी घर भर का करकट निगाह बचा कर मेरे दरवाज़े के पास फेंकने की आदी हो चुकी है। तो उनके बाजू वाली भाभी अपने पोता-पोतियों के पोथड़े (डायपर्स) सूखी नाली में स्ट्रीट-डॉग्स की रखवाली में छोड़ जाती हैं। अब मर्ज़ी कमअक़्ल व कम्बख्त कुत्तों की, कि उनकी होम-डिलेवरी कर किस-किस को कृतार्थ करें। यही हाल बग़ल वालों का है, जिनकी बासी दाल, कढ़ी या भुसी हुई सब्ज़ी प्रायः तीसरी मंज़िल से डायरेक्ट रोड पर कूद पड़ती है। बिना किसी डर के। पहले उसे झट से चट कर जाने वाले विशेष जीव दिन पर सब कुछ साफ करते रहते थे। जो अब पैरोल पर भी बाहर नहीं आ सकते। बंद जो हैं अपने अपने डेरों में। वैसे भी जहां दो पाये हों वहां चौपाये की क्या वेल्यू?
कमाल की बात यह है सर जी, कि भसड़ फैलाने के यह सारे पीले, सफेद कारनामे थके मांदे सफ़ाई-अमले की घर-वापसी के बाद चालू होते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे आपके विभागों व निकायों को सड़क बन जाने के बाद नाली, पाइप लाइन या केबल के लिए खुदाई सूझती है। कभी “मन की करामात” में ऐसी बातों का भी ज़िक्र हो जाए। भले ही एकाध एपीसोड का शीर्षक “बेमन की बकवास” हो जाए। कम से कम कोई मुद्दे की बात तो हो, बातों बातों में। खूब पता है आपके घनघोर नक़्क़ारखाने में मुझ तूती की रीं-रीं, पीं-पीं को सुनने वाला कोई नहीं। मगर क्या करें हुजूर, आपकी तरह हम भी लाचार हैं। हर मौके पर भड़ास पेलने के मामले में। हर मौके पर अकल का चौका जड़ने के चक्कर में। अब यह और बात है कि आपकी बॉल बाउंड्री पार हो जाती है और हमारी साली बल्ले पर ही नहीं आती।
सारा चक्कर यहां भी नसीब का ही है बॉस। हर मोर्चे पर पिछड़ने का अंदेशा होता तो काहे पैदा होते अगड़ों में। न लीपने के रहे, न पोतने के। “कुलीनता” का “टैग” लगा होने के कारण न चाय की गुमटी लगा सकते हैं, न नालों की गैस के दम पर पकौड़ों का ठेला। क्या गारंटी, कि कल को बेचारे पकौड़े भी समोसे, जलेबी की तरह किसी बीमारी की वजह नहीं ठहरा दिए जाएंगे। फाफड़ा, थेपला, गांठिया की प्रतिष्ठा के दौर में। नीले सिलेंडर से बना कर बेचना तो लाल वाले से रोटी पका कर खाने से भी ज़्यादा मंहगा है मालिक। हम तो वैसे भी सत्ता और संगठन दोनों में हाशिए पर पड़ी बिरादरी से आते हैं। क़लम-घिसाई धर्म है, पिस पिस कर घिस रहे हैं। बिना शर्म के मुफ़्त में। “बैठे से बेगार भली” वाली बात का मान रखने के लिए। अब पुश्तों से खा पीकर पुट्ठों से हाथ पोंछने वाले हम जैसों का काम पांच किलो राशन से तो चलने से रहा। अब ऐसे में चकल्लस की चूरन-चटनी तो लाजमी है ही। तमामों को बिना तिल्ली की रेवड़ियों को हज़म करते देखने से उपजे अजीर्ण के उन्मूलन के लिए। वरना कैसे काम आएंगे वो “टायलेट”, जिन पर रजटपट की “प्रेम कथा” तक रची जा चुकी है।
“स्वच्छता” का मतलब “साफ़-सफ़ाई के बजाय “सफ़ा”, “सफ़ाचट” या “सफ़ाया” हो जाए, तो बात बन भी सकती है। सफ़ाई हुई हो या न हुई हो, “सफ़ाया” तो जम कर हुआ ही है। थोड़ा-बहुत नहीं सर, इतना कि एक “रासो” या पूरा का पूरा महाकाव्य रचा जा सकता है। वो भी सफ़ाए के सम्मान में। महाभारत महाग्रंथ से भी मोटा। बिना किसी गाइड, बिना किसी शोध के। ठीक उसी तरह जैसे बिना जनगणना नीतियां रची जा रही हैं। हम भी ब्यूरोक्रेट, डेमोक्रेट या हिप्पोक्रेट होते तो लिखने के नाम पर फंड लेकर किसी से भी लिखवा लेते। अध्धयन-प्रवास के लिए अकादमिक माल व मौका मिलता सो अलग। हो सकता है दस-बीस सम्मान व दो-चार अलंकरण भी नाम के साथ चस्पा हो जाते। अब हम कोई अंतरराष्ट्रीय बाज़ारीकरण पर अरबों लुटाने वाले ग्राहक तो हैं नहीं, जो दीगर मुल्क़ हमें बुला-बुला कर ख़िताबों से नवाज़ें।
“आपदा में अवसर” के बजाय बिना चाहे “आपदा के अवसर” भरपूर मिलें, तो इससे अच्छी क़सीदाकारी हो भी कैसे सकती है दीनानाथ? “ताली से लेकर थाली पीटने तक” में हम भी कभी अव्वल थे हुजूर! आरती के लिए “मोबाइल की टॉर्च घुमाने से लेकर दीये और मोमबत्ती जलाने तक में भी।” गुस्ताख़ी इतनी सी हुई कि आंखे दिन चढ़ने से पहले ब्रह्म काल में ही खुल गईं। नतीजा यह रहा कि आपके नाम की चुनरिया न ओढ़ पाए। अब बिना “पट्टे और दुपट्टे वाले” की क्या पहचान? वो भी गमछा-धारियों और भांति-भांति के प्रभारियों के मोहल्ले में। जो “पट्टे” के आधार पर “पालतू और फ़ालतू” का पता लगाने में दरबारियों से ज़्यादा पारंगत हैं। वैकुंठ के पार्षद “जय-विजय” की तरह। इंद्र, कुबेर, कामदेव और रम्भा, मेनका, उर्वशी को गंध-मात्र से पहचान लेने वाले। क्यों और कैसे पहचानें लंगोट-धारी “सनत कुमारों” को? न जर्जर तन पर मखमली, रेशमी, रत्न-जड़ित लिबास, न खोपड़ी पर कलंगीदार पहाड़ी, न एक अदद मुकुट। फिर चाहे वो सोने का पानी चढ़े पीतल का ही क्यों न बना हो। वैसे भी अब पीतल को 24 कैरेट का सोना बना डालना आसान हो चुका है। ज़माना दुधारे व दुधारू “डायनामाइट” के पड़पोते “एआई” (आर्टीफीशियल इंटेलीजेंसी) का जो आ गया है। या ले आया गया है आपकी अनन्त कृपा से। सदुपयोग कम, दुरुपयोग भरपूर। बिल्कुल आपके नवरत्नों द्वारा प्रमोट किए जाने वाले भांति भांति के ऐप्स की तरह, जो सायबर ठगी के एंटरप्रेन्योर्स को सारा डाटा बेच कर अपना घाटा पूरा कर अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को सुधारने में जुटे पड़े हैं। वो भी केवल इसलिए कि उनकी “नीचता” के अधिकार आम जन की “निजता” के अधिकार से पावरफुल हैं। रुपए के मुकाबले डॉलर की वेल्यू की तरह।
अब बात करते हैं “सफ़ाये” की। जो वाक़ई पूरी सफ़ाई से जारी है। अब ये सफ़ाई हाथ की है या पांव की, जानकार ही जानें। सफ़ाया ज़रूर दमखम से हुआ है मालिक। स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई का, युवाओं में तरुणाई का, खेतों से फ़सलों का, खानदानी नस्लों का, राजनीति से नीति का, घर से समाज तक प्रीति का, सौहार्द्र व सद्भाव का, समरसता व समभाव का, आपसी व्यवहार का, सिद्धांत व संस्कार का। सफ़ाई की आड़ में सफ़ाये का धंधा इस रफ़्तार से चल रहा है कि आपकी इकोनॉमी की कथित रफ़्तार को भी मात दे रहा है। जिसे देखिए, वही सफ़ाई के नाम पर सफ़ाये के मूड में है। कार वाले सड़क से फुटपाथ तक जीवन का सफाया कर रहे हैं, बेकार वाले गली कूचों से निरीह जीवों का, जिन्हें शायद उनके बाप की जागीर में जीने का हक़ नहीं।
सायबर-ठग एक क्लिक से बैंक एकाउंट साफ़ कर रहे हैं। रही-सही कसर ऑनलाइन गेमिंग वाले पूरी कर रहे हैं। जिनके चंगुल में बच्चे बाप की जेब और माँ का पर्स साफ़ किए दे रहे हैं। भारी-भरकम बज़ट धुरंधर नेता और नौकरशाह साफ़ किए जा रहे हैं। लॉकर्स की सफ़ाई बैंकों में आम बात बन ही गई है। बड़े बड़े बैंक “विधवा की मांग” की तरह खाली पड़े खातों से पेनाल्टी के नाम पर 57 रुपए 21 पैसे की राशि तक साफ़ करने से नहीं चूक रहे। जो सरकार बेचारे आम रसोई गैस उपभोक्ता को भारी-भरकम सब्सिडी के नाम पर भेज कर कृतार्थ कर रही हैं।
सफ़ाई और भी जगह हुई है और हो रही है। अपराधियों, उन्मादियों, काला बाज़रियों, नक़्क़ालों, अवैध भंडारकों, तस्करों, मुनाफ़ाखोरों व माफियाओं के दिल-दिमाग़ से क़ानून का ख़ौफ़ साफ़ हो चुका है। नाबालीगों व नशेड़ियों की खोपड़ी से वर्दी व उसकी बेदर्दी का। लिहाजा आबादी की सफ़ाई की ख़बरें धड़ल्ले से बढ़ रही हैं। सफ़ाई से प्रेरित अड़ोसी-पड़ोसी सहिष्णुता के सफ़ाये पर आमादा हैं, तो जाफ़र और जयचंदों के वारिस मुल्क़ का सफ़ाया करने को व्यग्र बने हुए हैं।
खनन-माफिया धरातल से रसातल तक के संसाधनों व संपदाओं की सफ़ाई में प्राण-पण से जुट कर सफाया किए दे रहा हैं। भू-माफिया कॉलोनी के लिए खेत, तो खेतों के लिए जंगल साफ़ कर अपनी पताका शान से फ़हरा रहे हैं। लिहाजा मजबूर जंगली जानवरों को हाथ, दांत, पंजों व जबड़ों की सफ़ाई दिखाने गांव, कस्बों, शहरों में आना पड़ रहा है। सफ़ाये का मन बना कर घरों तक आने के आदी हो चुके नदी, नालों व सागरों की तरह। सदनों से विपक्ष साफ़ हो रहा है, तो छोटे दलों से नेता व कार्यकर्ता। यह और बात है कि इस सियासी सफ़ाई के चलते कल का “गुलदान” आज का “उगालदान” बन चुका है। “राम तेरी गंगा मैली” की तर्ज़ पर।
ऐसी सफ़ाई भी किस काम की, कि घर ज़माने भर की गंदगी बटोर कर लाने और चमकाने का घाट बन जाए और घर के बरसों पुराने साजो-सामान का कचरा होकर रह जाए। कहाँ तक गिनाएं बॉस? थाली से आलू-टमाटर साफ़ हो रहे हैं, तो हांडी से प्याज़-लहसुन व अदरक। जीवन रक्षक की जगह जानलेवा बन रहीं नकली दवाओं से मरीज़ साफ़ हो रहे हैं तो ट्रेनों व बसों से लगेज। मंदिरों के प्रसादों से शुद्धता व पवित्रता का सफ़ाया हो रहा है तो लोक-आचरणों से नैतिकता, मर्यादा व मूल्यों का। तीज-त्योहारों से उमंग व उल्लास का सफ़ाया हो गया है तो अमन-पसंद लोगों के जीवन से शांति व सुरक्षा के विश्वास का।
बुज़ुर्ग नागरिकों के लिए रेल किराए में रियायत, बरसों-बरस सेवा देने वाले कर्मचारियों की पेंशन, युवाओं की नौकरियां अर्थव्यवस्था की दुहाई देकर पहले ही साफ़ की जा चुकी है। चंद कानूनी धाराओं की संख्या में बदलाव मात्र से मैली कुचैली न्याय प्रणाली साफ़ हो गई है। दंड पर न्याय की प्रधानता के नाम पर उपजी उद्दंडता भी भद्रता के सफ़ाये के चक्कर में है। कोई तेज़ रफ़्तार गाड़ी से सड़क की सफ़ाई कर रहा है, तो कोई सेंधमारी कर दुकानों और गोदामों की। कोई राशन का भंडार साफ़ कर रहा है तो कोई मुफ्त की दवाओं का। कुल मिला कर सफ़ाई परमो-धर्म बन चुकी है। मवेशी भी बता रहे हैं कि उनके चरागाह साफ हो चुके हैं।
साफ़-सफ़ाई और सफ़ाया अब आदत में ऐसे घुसा है, जैसे मुल्क की बस्ती-बस्ती में घुसपैठिये। जिसे देखिए वही साफ़-सुथरा व सफ़ाई-पसंद है। कोई साफ़-साफ़ धौंस-डपट दे रहा है, तो कोई बिना मांगे सफ़ाई देने का काम कर रहा है। कोई साफ़-साफ़ गालियां देकर अपनी साफ़गोई का मुजाहिरा कर रहा है, तो कोई उग्र व उन्मादी भीड़ का हिस्सा बन निरीहों पर हाथ साफ़ कर रहा है। साफ़-साफ़ सौदेबाज़ी, साफ़-साफ़ धंधेबाज़ी, साफ़-साफ़ लफड़ेबाज़ी, साफ़-साफ़ पंगेबाज़ी। अब और क्या बचा है प्रभु, साफ़ करने व कराने को?
और हां, यह बताना तो रह ही गया। संचार के नाम पर डेटा क्रांति ने तमाम परिंदे साफ कर दिए है। पहले 3जी, 4जी ने सारी गौरैया साफ कर डाली, अब 5जी कौओं से लेकर मैनाआं तक के कुटुंबियों को सफा करने का बीड़ा उठा लिया है। नई शिक्षा नीति ने बच्चों की मुस्कान व शिक्षकों के मान सम्मान का सूपड़ा साफ कर दिया है। अभिभावकों की जेब निजी स्कूल व कोचिंग सेंटर साफ करने का ठेका लिए बैठे हैं। सफेद नशे के क्ले धंधे ने तरुणाई नामक पीढ़ी की जड़ से सफाई का मानो बीड़ा उठा लिया है। ऐसा नहीं कि सब कुछ आपके परचम के तले ही हुआ है, मगर बराबर के जिम्मेदार आप भी हैं।
राजधानी दिल्ली से लेकर ताजधानी आगरा ही नहीं देश के बड़े बड़े नगरों तक में मेहमान शासकों व राजनेताओं की विदाई के बाद सजावटी सामानों की दिन-दहाड़े सफ़ाई तो आप भी नहीं भूले होंगे। इसलिए कोई नया फ़ार्मूला लाइए अब। वहुत हो ली साफ़-सफ़ाई। इस देश में अगर तीज त्योंहार व अतिथि सत्कार की पुरानी परिपाटी न होती, तो घर-घर मक्खी मच्छर वाली चौपाटी होती। साफ़-सफ़ाई की पगड़ी दीवाली, क्रिसमस, ईद के सिर पर बंधी रहने दीजिए महाप्रभु। मुमकिन हो तो सफ़ाये पर रोक लगाइए। स्वच्छता को नुमाइशी या “चार दिन की चांदनी” बनने से बचाइए। ज़हनी व ज़हनियत के कचरे के फैलाव का कारगर नुस्खा खोज कर अमल में लाने के बारे में सोचिए। ऐसा न हो कि देर हो जाए और बचा-खुचा भरोसा भी साफ़ हो जाए। हमारे जैसों का, जो न जाने क्या क्या सफा होते देख रहे हैं।
नवरात्रा के साथ नए उत्सवी क्रम का श्रीगणेश होने जा रहा है। साफ सफ़ाई आम जनता पर छोड़िए। आप सफ़ाये का एजेंडा सेट कीजिए। सफ़ाया कीजिए उन मांदों का, जहां से निकल कर भेड़िए हमारे सिंहों पर कायराना हमला कर रहे हैं। सफ़ाया कीजिए उन झुग्गी-बस्तियों व बदनाम गलियों का जो मानव क्या पशुओं तक के लिए साक्षात नर्क हैं। सफ़ाया कीजिए व्हीआईपी कल्चर, निरंकुश नौकरशाही व भर्राशाही का, जो नक्सलवाद जैसी देशद्रोही परिपाटी की महतारी (जननी) है। सफ़ाया कीजिए धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र, लिंग आदि के आधार पर बढ़ते अलगाव का, जो एकता व अखंडता के लिए ख़तरा है। सफ़ाया कीजिए देश, समाज व जनरोधी सोच व आसुरी शक्तियों का, जो चिंगारी से दावानल बनने की ओर पूरे वेग से अग्रसर है। सफ़ाया कीजिए सार्वजनिक सम्पदा के विध्वंस व नरसंहार के मंसूबों का, जो आज व आने वाले कल की सबसे बड़ी चुनौती है। भ्रष्टाचार, मुफ़्तखोरी, मिलावट, जमाखोरी, मुनाफ़ाखोरी जैसी गन्दगियाँ भी अब निवारण नहीं निर्वाण के लिए एक समूल-सफ़ाया अभियान चाहती हैं।
और हां, एक बात तो रह ही गई बताने से। थोड़ी सी सफ़ाई इस आभासी दुनिया (सोशल मीडिया) की भी करा दीजिए। जहां अश्लीलता व अपराधों का निर्वसन नृत्य सरे-आम जारी है। वस्त्रहीन 72 लाख हूरों के एकाउंट व उनके “इंडियन एस्कॉर्ट सर्विस सेंटर” पता नहीं आपको कैसे नहीं दिखे अब तक। आप तो 13 महीने 366 दिन एक्टिव रहते हैं यहां। वो भी दिन में 25 घण्टे। फिर दूर-दराज़ के मजरों-टोलों से गुमनाम चेहरों व अनूठे कामों को ढूंढ लाने वाली आपकी “संजय-ब्रांड” दिव्य-दृष्टि उस काले कारोबार तक कैसे नहीं जाती, जो दिन के उजाले में चल रहे हैं व लाखों को करोड़ों से छल रहे हैं।
चउओं, पउओं, अद्धों, खम्बों की वो जानें। मुझे तो “ओरिजनल” के बजाय “रीज़नल” व “सीज़नल” सफ़ाई समझ में आने वाली नहीं। ख़ास कर आज के माहौल में, जहां “थूक” घी, मक्खन, क्रीम, मलाई की जगह “रोटी से बॉडी तक” रगड़े जाने की बात आम हो गई है। फल-फूल, सब्ज़ी-भाजी “लघुशंकाई द्रव्य” से ताज़गी पा रही हैं। कल को मामला “दीर्घशंकाई ठोस” तक भी जा सकता है। जहां “प्रसादम” की स्वच्छता (शुद्धता) संदिग्ध हो जाए, वहां किसी सफ़ाई की क्या विश्वसनीयता बाक़ी बचती है? सामने (मुख़ालिफ़) खड़े होकर मनपसंद “6” मत देखिए। मेरे बाजू में आइए, जहां मेरी तरह आपको भी “9” नज़र आने लगेगा। आज नहीं तो शायद कल।
यक़ीन मानिए, आपकी सद्प्रेरणा से साल में दो चार बार चलने वाले सगाई अभियान से आम आदमी का कुछ भला होने वाला नहीं। हां, आम आदमी पार्टी का कल्याण अवश्य हो जाता है। जिनका “चुनाव चिह्न” (झाड़ू) “आप” के बजाय आपके बंदे प्रमोट करते हैं। कभी भीम बन कर गदा की तरह कंधे पर रख कर इतराते हुए, तो कभी आल्हा ऊदल बन कर तलवार की तरह लहराते हुए। बस एक अच्छी सी फोटो खिंचवा कर सोशल साइट्स या आपके प्लेटफॉर्म पर चिपका कर अपना चेहरा चमकाने के लिए। वो भी गंदी नहीं, साफ सुथरी जगह पर झूठमूठ का कूड़ा बिखेर कर। सफाई करने का जज़्बा है तो कर के दिखाएं गंदगी भरे नालों और सड़ांध मारती गलियों को। वो भी लाखों के बिल में दर्ज होने वाली ब्रांडेड व हल्की फुल्की नहीं, सफाई करने वाले भाइयों की पुरानी ब भारी झाड़ूओं से।
माई-बाप! छोटे-मोटे ही सही, “आईने” तो हैं ही हम। आपके रसूख के गवाह “आईन”
(संविधान) की तरह। हम कथित अर्बन नक्सलियों या राष्ट्र विरोधियों की तरह परिदृश्य उपजाते नहीं, बस प्रतिबिम्बित करते हैं। वो दिखाते हैं, जो देखते हैं। बिना किसी सजावट, बनावट या लाग-लपेट के। देखना आपका और आपकी आंखों का काम है। “नारद-मोह” की कथा आपने भी सुन रखी होगी। जिनकी किरकिरी केवल एक दर्पण की कमी ने ही कराई। अन्यथा देव-ऋषि, परमहंस व प्रभु-प्रिय, मदन विजेता वे भी थे, आपकी तरह। हिसाब साफ़, गुस्ताख़ी माफ़। आदाब अर्ज़ है, क्योंकि राजा का सम्मान प्रजा का फ़र्ज़ है। जय राम जी की।।
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-सम्पादक-
●न्यूज़&व्यूज़●
(मध्य-प्रदेश)