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3 Sep 2017 · 1 min read

ग़ज़ल।दर्द के ऐसे निवाले पल रहे है आजकल ।

ग़ज़ल । दर्द के ऐसे निवाले पल रहे है आज़कल ।

सादगी मे लोग बेशक़ ढल रहे है आज़कल ।
बेवफ़ाई पर यक़ीनन कर रहे है आजकल ।

झूठ की दुनियां बसाकर लूटने की साजिशें ।
अश्क़ आंखों मे किसी के भर रहे है आज़कल ।

रहनुमां खूंखार बाग़ी मतलबी बेईमान से ।
दे दख़ल हर जिंदगी मे ख़ल रहे है आज़कल ।

आम जनता नींद मे बस चल रही है रास्ता ।
जागती क़ानूनी रश्में गल रही हैं आज़कल ।

बेबसी मे जी रहे जो इक उजाले के लिए ।
रात अंधेरी उन्हें भी छल रही है आज़कल ।

आशिकों मे भर रहा है वक़्त भी हैवानियत ।
प्यार की रश्में जहां मे मर रही है आज़कल ।

मौत “रकमिश” हो गयी सस्ती यकीं तू मान ले ।
दर्द के ऐसे निवाले पल रहे है आज़कल ।

राम केश मिश्र
सुलतापुर उत्तर प्रदेश

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