कविता - श्मशान
कविता
जलते हुए
कई बार मैंने
खुद को
श्मशान में
जलते हुए देखा है
कभी अंगारे बचे
तो कभी राख
धरम करम का
बहुत हिसाब
रखा है मैंने
पर श्मशान घाट में
सब भूल गया
और
कई बार मैंने
खुद को
श्मशान घाट पर
जलते हुए देखा है
कभी अंगारे बचे
तो कभी राख
धन दौलत भी
कमाया बहुत
पर श्मशान घाट में
पड़ा था निर्जीव शरीर
हाथ थे खाली
सीने पर था
लकड़ियों का बोझ
जल रहा था मैं
और उठ रहीं थी
धू धू करती लपटें
कई बार मैंने
खुद को
श्मशान घाट पर
जलते हुए देखा है
कभी अंगारे बचे
तो कभी राख
पाप पुण्य के
सुने थे बहुत उपदेश
पुण्य कमाने के लिए
कितने ही कर
दिए पाप
फिर भी है उम्मीद कि
धर्मात्मा कहलाऊॅ
मरने के बाद भी
अजब हैं
यह दुनियाॅ के खेल
मरने के बाद
भी अमीरी
प्रसिध्दि चाहता है
इंसान
जबकि
कई बार मैंने
खुद को
श्मशान में
जलते हुए देखा है
कभी अंगारे बचे
तो कभी
सिर्फ राख
संतोष श्रीवास्तव