ओ बादल!
गरज-गरज, गगन कर गर्जन !
बरस-बरस, बूंदों का वज्र-वचन!
धरती डरी-दबी-दुबली,
सूखे से सहमी-सिमटी।
फसल खड़ी—फटी आँखों से,
मानो भूखी माँ
बच्चों को निहार रही हो।
ओ बादल! ओं जलधर
तेरे केशों में बिजली की कंघी,
तेरी आँखों में तड़ित की चमक
तू क्यों चुप है?
क्यों बैठा है मौन-गंभीर,
मानो सत्ता का साथी हो?
देख! घन, श्यामल तन
धान की पत्तियाँ
तेरे पाँव पकड़ रो रही हैं।
गेहूँ की बालियाँ
तेरे चरणों में झुक-झुक
कह रही हैं
ओ मेघराज!
बरस, बरस!
वर दे, वर दे!
धरती का आँचल
फटा हुआ है
बच्चे भूख से बिलख रहे हैं।
ओ बादल!
तेरी बूँदें ही उनके
आँसुओं का आसरा हैं।
गरज तू,
गर्जन से गूँज उठा
अम्बर-अनंत!
बरस तू,
बरसकर धुल जाए
अन्नदाता का क्लांत-कण्ठ।
बरस!
पर बाढ़ बनकर नहीं
बल्कि जीवन बनकर।
गरज!
पर आतंक बनकर नहीं
बल्कि आशा बनकर।
तेरी हर बूँद
किसान के माथे का तिलक बने,
तेरी हर धार
धरती की माँग का सिंदूर बने,
तेरी हर गड़गड़ाहट
अन्याय पर ललकार बने!
ओ बादल!
तेरा जल तभी अमृत कहलाएगा
जब फसल हँसेगी,
धरती गाएगी,
किसान मुस्काएगा।
© अमन कुमार होली