अब वहां कुछ नहीं
गर्मियों की छुट्टियों का वो प्यारा संसार,
जहाँ बचपन दौड़ता था बेमोल, बेइंतज़ार।
नानी का आँगन, वो मुस्कान की छाँव,
अब सिर्फ़ यादों में है वो मीठा गाँव।
आम के पेड़ों पर चढ़ते थे हम शान से,
टहनियों की उँगलियों में झूलते थे गुमान से।
हर आँधी की अगली सुबह थी खास,
जामुन बीनने का चलता था मधुर प्रयास।
कच्चा वो घर, मिट्टी की भीनी महक,
अन्दर जाते ही लगता जैसे दुनिया ठहर गई एक।
चूल्हे की रोटियाँ, गुड़ की मिठास,
नानी की कहानियाँ, आँचल में विश्वास।
वो पीतल की लोटियाँ, बाल्टी में कुएँ का पानी,
हर बात में बसती थी ममता की रवानी।
छत पर तारों से बात करते थे हम,
नानी की थपकी में सुकून था हरदम।
पर अब न वो पेड़ हैं, न वो आँगन की ठंडी छाँव,
कहाँ गुम हो गई वो मुस्कान, वो गाँव?
वो कच्चा घर अब मलबे में ढह गया,
नानी भी समय की रेत में बह गई।
अब पक्के मकान हैं, पर रिश्ते कच्चे,
बचपन की यादें हैं, पर नम हैं अब भी पलकें।
मन करता है फिर एक बार वहाँ लौट जाऊँ,
नानी को पुकारूँ, उनके आँचल में समाऊँ।
पर वक़्त की रेखाएँ पीछे नहीं मुड़तीं,
केवल स्मृतियाँ हैं जो दिल में हैं जुड़तीं।
गर्मियों की वो छुट्टियाँ अब सपना लगती हैं,
नानी और उनका प्यार… बस कविता बनती हैं।