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12 Jul 2025 · 1 min read

जब शब्द जिया करते थे

वो कागज़ की चिट्ठी, वो स्याही की बात,
हर पंक्ति में बसती थी मन की सौगात।
हर मोड़ पर रुकता था दिल का सफ़र,
जब खुलती थी चिट्ठी, थम जाता था शहर।

तुम्हारे हाथों की सुगंध थी उस पत्र के पन्नों में,
भावनाएँ लिपटी थीं हर एक वाक्य-वंदन में।
जो लिखा गया था, वह जिया भी गया,
वक़्त के साथ हर अक्षर पिया भी गया।

अब तो हैं बस स्क्रीन पर त्वरित संदेश,
“हाय”, “सुप”, “टेक केयर” — यंत्रवत् प्रवेश।
ना विराम की मधुरता, ना अलंकार का श्रृंगार,
ना वो प्रतीक्षा, ना मौन का मौलिक प्यार।

पुराने पत्र अब रोते हैं कोनों में कहीं,
“हम वो आईने थे, जिनमें आत्मा दिखी।”
और व्हाट्सएप मुस्काता है अभिमान से,
“मैं समय बचाता हूँ अपनी गति-वाणि से।”

पर समय बचा कर क्या पाया गया,
जो धीरे-धीरे पनपता था, वह मिटाया गया।
पढ़ने में जितनी देर लगती थी कभी,
उतनी ही देर तक मन ठहरता था वहीं।

एक ओर है यांत्रिक संवाद की रफ्तार,
दूसरी ओर वो पत्र — धीमा, पर सजीव विचार।
संवेदनाएँ उभरती थीं स्याही की रेखा में,
अब सिमट गई हैं इमोजी की रेखाओं में।

संदेश आज भी आते हैं, मगर आत्मा खो गई है,
शब्द तब जिया करते थे — अब बस टाइप किए जाते हैं।

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