समानता
समानता
मैं
लड़ नहीं पाता
उससे —
जिसमें
थोड़ा-सा भी
‘मैं’ छिपा होता हूँ।
जिसकी आँखों में
वही प्रश्न तैरते हैं
जिनसे मैं भी
रात-भर जूझता रहा हूँ,
उसके विरुद्ध
मेरे हाथ काँपते हैं।
क्योंकि
विरोध वहाँ कठिन हो जाता है
जहाँ समानता की हल्की-सी रेखा
मन के किसी कोने में
धड़कती है।
हम
अपने जैसे लोगों से
नफ़रत नहीं कर पाते
पूरी ईमानदारी से।
हमें चाहिए पूर्ण अजनबी —
अलग भाषा, अलग त्वचा,
अलग पीड़ा।
मित्र भी
तभी बनते हैं
जब वे
हमारे भीतर के अनकहे
को कह जाते हैं
बिना पूछे,
जब वे
हमारे ही स्वप्न
हमसे पहले देख लेते हैं।
शत्रु वही बन पाता है
जिससे कोई धागा
बंधा ही नहीं होता।
वह
जिसे देखकर
हमारे भीतर कुछ भी
नहीं काँपता —
न करुणा, न अपराधबोध।
समानता
सिर्फ जोड़ती नहीं,
रोकती भी है —
प्रहार से,
प्रतिरोध से,
निर्णय से।
कभी-कभी
हमारी सबसे बड़ी दुर्बलता
हमारी सबसे गहरी
मानवता होती है।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’