छाया कलियुग अब अधिक
छाया कलियुग अब अधिक,सकल जगत में आज।
रिश्ते खोते प्रेम सत,मिटी आँख की लाज।
मिटी आँख की लाज,भाव दूषित हैं पलते।
संस्कृति चिंतक आज,हाथ अपने हैं मलते।
मिटा प्रेम का भाव, लखे जग केवल माया।
रिश्ते हों लाचार,कहें कलियुग है छाया ।।
माया पाने के लिए,भटका मानव राह।
हित अनहित की सोच तज,करता धन की चाह।
करता धन की चाह,भूलता रिश्ते नाते।
टी वी अरु अखबार,हाल नित यही बताते।
मुश्किल में संसार,ग्रहण संस्कृति पर छाया।
लुटा प्रकृति शृंगार,दिखे सबको बस माया।।
डॉ ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम