अबला नहीं मैं नारी हूँ
मैं
वो नहीं
जो रोटियाँ बेलती हुई
ख़ुद को भूल जाए।
मैं कोई कंधा नहीं
जिस पर सिर रखकर
थोड़ी देर रो लिया जाए।
मैं
हां, वही
जिसे सदियों तक
“धैर्य की देवी” कहा गया,
और फिर
उसके सब्र की मिट्टी से
दीवारें चुन दी गईं।
मुझे मंदिर कहा गया,
और फिर मेरे पांव
घर की देहरी में बाँध दिए गए।
मेरे सवालों को “संस्कार” में लपेट कर
तिजोरी में रख दिया गया।
पर अब —
मेरी चुप्पियाँ भी बोलती हैं।
मेरी आंखें अब सिर्फ़ सपना नहीं देखतीं,
जवाब भी देती हैं।
मैं अब
घूंघट में नहीं,
गगन में उड़ती हूं।
मैं अब
देह नहीं,
दिशा हूं।
मेरे पास किताबें हैं —
कुर्सियाँ हैं —
निर्णय हैं —
और अब ‘हाँ’ और ‘ना’ का
फर्क़ भी मुझे आता है।
तुम कहते थे —
“औरत की जगह रसोई है।”
मैं कहती हूँ —
रसोई भी मेरी है, और संविधान भी।
तुमने मुझे अबला कहा,
मैंने कलम उठाई।
तुमने मुझे चुप रखा,
मैंने कविताएँ गढ़ीं।
अब मत रोको मुझे —
मैं किसी की परछाई नहीं,
मैं नारी हूँ — और खुद अपनी रौशनी हूँ।