तन्हाई की तह में
टूटे हुए काँच की तरह चकनाचूर हो गए,
किसी को चुभे न — इसलिए सबसे दूर हो गए।
हर बात में जो हँसते थे, अब ख़ामोश हैं वो लब,
कभी जो पास थे बहुत… अब बहुत दूर हो गए।
यादों की बारिश में भीगती रही ये रूह मेरी,
ना कोई छाँव मिली… ना कहीं नूर हो गए।
कभी जिनके नाम से महकते थे दिल के गुलाब,
अब वही नाम, ज़ख़्म बनकर नासूर हो गए।
आँखों में बसते थे जो — वो अब ख्वाब हो गए,
हसरतों की चिता में जलकर मज़ार-ए-शऊर हो गए।
दिल की गलियों में अब सन्नाटा ही सन्नाटा है,
वो लोग जो समझते थे हमें… मगरूर हो गए।
अब ना शिकवा है किसी से, ना गिला किसी बात का,
हम भी उस इश्क़ के हाथों मजबूर हो गए।
कल तक जो कहते थे — “हम तुमसे जुदा न होंगे”,
आज वही कहते हैं — “अजनबी से भी दूर हो गए।”
टूटे अरमानों की राख़ भी उड़ चली हवाओं में,
जो कभी हमारी पहचान थे… दस्तूर हो गए।
✍️✍️✍️✍️✍️ महेश ओझा