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29 Jun 2025 · 1 min read

अच्छे घर, नहीं बनते बार-बार....!

” मैंने घर की दीवार पर…
एक कील में,
जिंदगी का कैलेण्डर टांग दिया…!
संभाला उसे…
दिन, हफ्ते, महीने और सालों तक…!
पेज पलटते रहे…
पन्ने हर बार फटते रहे…!
यूं ही मेरे हिसाब से…
बेहिसाब दिन गुजरते रहे…!
और बढ़ते गए, मेरे उम्र के साल…!
मगर दिन जिंदगी के…
दिन प्रतिदिन घटते रहे…!
माना कि जिंदगी…
कैलेण्डर की तरह है, बदलते रहते हैं…!
जैसे आचार-विचार, रंग-रूप-आकार…
जीवन शैली और ऊंच-नीच व्यवहार…!
मगर मुझे…
कैलेण्डर सा फटना नहीं है…!
आगे बढ़ना है…
एक नई कैलेण्डर के साथ,
बीते यादों को संजोए…!
स्मृति बनकर रहेगी…
मेरी पुरानी कैलेण्डर,
दीवार की उस कील पर…!
और बदलते दौर के पन्नों पर…!
हर बार की तरह…
एक अच्छी शुरुआत के संग…!
एक अच्छे दिन की इंतजार में,
एक अच्छे रूप-रेखा में तैयार होकर…!
क्योंकि अच्छे घर, नहीं बनते, बार-बार…!! ”

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