मनुष्य जब जीवन की आपाधापी से थक जाता है, जब शब्द खोखले लगने
मनुष्य जब जीवन की आपाधापी से थक जाता है, जब शब्द खोखले लगने लगते हैं, और जब भीतर की बेचैनी एक अज्ञात दिशा की ओर खींचने लगती है—
तब वह अक्सर पहाड़ों की ओर देखता है, जंगलों की छाया खोजता है, नदी की धारा में कुछ खो देने की चाह रखता है…
यह आकांक्षा केवल थकान से उपजी पलायन नहीं होती, यह उस प्राचीन आह्वान की गूंज होती है जो हमारे अस्तित्व की जड़ों से आती है— “लौट आओ…
जहाँ से चले थे, वहीँ लौटो….”
प्रकृति कोई दृश्य नहीं, कोई मनोरंजन नहीं…
वह हमारे भीतर की वही प्रतिध्वनि है जो सभ्यता की दीवारों में कैद होकर चुप हो गई थी..
जब कोई अकेले जंगल में उतरता है, कोई छोटी पगडंडी पर चलता है जहाँ न कोई आवाज़ है, न कोई मंज़िल….
वहाँ धीरे-धीरे कुछ खुलने लगता है…
शुरुआत में यह डर होता है, “फिर मौन” और फिर—
वह अजीब सी बात होती है—
जैसे कोई हमें देख रहा है, बिना आंखों के, जैसे कोई बात कर रहा है, बिना शब्दों के, यह वही क्षण होता है जब बाहर की प्रकृति, भीतर की चेतना से मिलती है…
हम चल रहे होते हैं, लेकिन जानते नहीं कि हम चल रहे हैं, समय वहाँ हमारे पीछे चलता है, और हम भविष्य की ओर भागते हैं…
लेकिन जंगल में, पहाड़ों के बीच, किसी बहती नदी के किनारे— समय पिघल जाता है…
एक क्षण इतना फैला हुआ लगता है कि उसमें पूरा जीवन समा जाए, मन का शोर धीरे-धीरे मिटता है और वह जगह खाली हो जाती है जहाँ पहले ‘मैं’ बैठा था…
उस खाली जगह में कुछ और उतरता है…
कुछ जिसे हम आत्मा कह सकते हैं, या चेतना, या बस मौन….
प्रकृति सिखाती नहीं, पर दिखाती है, न कोई उपदेश, न कोई ग्रंथ, फिर भी सब कुछ स्पष्ट… एक वृक्ष सालों से खड़ा है, चुपचाप, बिना शिकायत, बिना आकांक्षा के और उसमें जीवन की गहराई है…
एक नदी बहती रहती है, बार-बार टूटती है, पत्थरों से टकराती है, पर कभी रुकती नहीं, और वह हमें त्याग और प्रवाह का पाठ पढ़ा देती है… अगर ध्यान से देखा जाए तो हर पत्ता, हर मिट्टी का कण, एक प्राचीन ऋषि की तरह प्रतीत होता है…
जिसे शब्दों की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उसकी उपस्थिति ही पर्याप्त है….
मनुष्य जब प्रकृति में उतरता है, तो वह फिर से मनुष्य बनता है, वह जो खो गया था….
वह सरलता, वह मौन, वह अनजानी प्रार्थना, सब कुछ धीरे-धीरे लौट आता है…
उस पगडंडी पर, जहाँ कोई नाम नहीं, उस झील के किनारे, जहाँ कोई दिशा नहीं, वह व्यक्ति अपने भीतर उतरने लगता है…
यह यात्रा कहीं जाना नहीं है, बल्कि वहीं पहुँचना है, जहाँ से हम बिछड़े थे…
कोई आत्मज्ञान किसी ग्रंथ से नहीं, किसी शिक्षक से नहीं—
बल्कि केवल एक तितली की उड़ान, एक पुराने वृक्ष की छाल, और एक झरने की आवाज़ से भी मिल सकता है, अगर देखने वाली दृष्टि मौन हो जाए…
आंतरिक यात्रा कोई प्रयास नहीं, कोई संकल्प नहीं, यह एक अनुमति है, यह एक अनुभूति है खुद को सुनने की, खुद को मिटाने की, और प्रकृति वह दर्पण है जिसमें हम बिना मुखौटे के खुद को देख सकते हैं…
वहाँ न कोई धर्म है, न कोई मत…
केवल उपस्थिति है — शुद्ध, पारदर्शी, सच्ची..
और तब समझ आता है कि खोज किसी ऊँचे सत्य की नहीं थी…
खोज केवल इतनी थी, कि हम फिर से सीखें कैसे पेड़ की तरह खड़ा रहा जाए, कैसे नदी की तरह बहा जाए, और कैसे आकाश की तरह सब कुछ समेट लिया जाए—
बिना किसी आग्रह, बिना किसी विरोध…
यह आंतरिक यात्रा कभी खत्म नहीं होती, क्योंकि यह कोई रास्ता नहीं, बल्कि एक दृष्टि है और वह दृष्टि प्रकृति के मार्ग पर ही मिलती है…