प्रेम गुत्थी
यह प्रेम सरल नहीं, सागर तरंग सा डोला।
सुख-दुख के मिलन में, वसन्त-शरद जैसा खोला॥
कभी मधु बन बहता, मीठी बयार सा छाया।
कभी विषधर सा डसता, जीवन में अँधेरा छाया॥
तुम आग सी दीप्तिमान, मैं पतंगा सा भोरा।
मिलन की अभिलाषा में, जल गया रोज निथरा॥
तुम शीतल चन्द्रिका सी, दूर नभ में विराजत।
मैं धरा का तृण हूँ, तुम तक पहुँचे का नहीं साजत॥
तुम्हारा मौन वज्र सा, हृदय को करता चीर।
मेरी वाणी पुष्प सी, तुम पर बिखरी हुई अतीर॥
यह प्रीति कुसुमित लता, कंटकों से घिरी हुई।
मधु चखने को चाहूँ, भय समीप खड़ा रही॥
फिर भी यह बन्धन पुराना, छूटता नहीं हृदय से।
रहस्यमयी रसधार सा, बहता रहेगा सदा यह॥
पंडित. भारमल गर्ग “विलक्षण”
सांचौर राजस्थान (३४३०४१)