स्वप्न ....
स्वप्न ….
कल तक
चूजे से मेरे स्वप्न
रोशनी से डरते थे
हर वक्त
पलकों से चिपके रहते थे
लेकिन आज
वो चूजे से स्वप्न
किशोर हो गए हैं
अपनी दहलीज़ लांघने को
उत्सुक हैं
अपने पावों के लिए
ज़मीन तलाशते हैं
अपने लिए
उन्मुक्त आसमान ढूंढते हैं
उड़ने के लिए
किशोर स्वप्न
व्यस्क होते ही
जताने लगे हैं
अपने अधिकार
पलकों की चौखट के
बाहर भी
सुशील सरना