Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
6 Jul 2025 · 1 min read

भूल(विस्मृत ) रहा है।

पर्वत की तरह अडिग रहो ।
कर्म मय में जीवन में सहनशील रहो ।
अनेकता संसार है, जिसका आकार है।
जाति धर्म प्रेम सब के अपने अनुरूप है।
बढ़ते क्रम में पर्यावरण की तरह, सब दूषित हो रहा है ।
उद्गम को भूल रहा है।
क्या ढूंढ रहा है।
तरक्की के राह पर,
या मानव विनाश की ओर जा रहा है।
मानवता बुद्ध की ओर नहीं।
युद्ध की ओर जा रहे हैं।
कौन भूल रहा है ।
सभी अपने को सही साबित करते।
दूसरे को ग़लत ठहराते हैं।
प्रायः सभी ये करते हैं।
अहंकार बस चलते है।
प्रेम भूल रहा है। ‌ ‌
-डॉ . सीमा कुमारी। 6-7-025की मेरी स्वरचित रचना जिसे आज प्रकाशित कर रही हूं।

Loading...