संघर्ष
सत्ता का अंधा गलियारा
मचा रहा कोलाहल सारा।
घर को बेच रहा सौदे में
होने वाला है घोटाला।
बाहर से है उजला उजला
भीतर से है एकदम काला।
पूंजीपतियों की चौखट पर
दुम हिलाता नौकर आला।
वो मध्यम गरीब के बेटे
अभाव ने है जिनको पाला।
भविष्य दांव पर लगा दिया है
आखिर कैसा बैर निकाला।
तजकर अपनी बद नीयत को
बुझा दे निजीकरण की ज्वाला।
संघर्षों को न्यौता ना दे
तोड़ दे अपनी जिद का प्याला।
सारी शर्तें एक फ़रेब है
ढोंग बड़ा तू रचने वाला।
नहीं हमें स्वीकार नहीं
हितों पे जो ये डाका डाला।
चट्टानों से डटे रहेंगें
पीछे कदम न हटने वाला।
सच की ख़ातिर टकराएंगे
रंग बसंती है रंग डाला।
विचलित नहीं जरा भी होंगे
पीना पड़े हलाहल हाला।
तूफानों को आगे कर दे
या फिर मार फेंक कर भाला।
संकल्प अटल है अडिग है
झुका नही न झुकने वाला।
-देवेंद्र प्रताप वर्मा ‘विनीत’