जिंदगी उधार सी लगती है
ज़िंदगी उधार सी लगती है
जिंदगी उधार सी लगती है,
कभी-कभी मुझको बेज़ार सी लगती है।
कभी मुस्कुराती है दिल खोल कर मुझ पर,
और कभी दुख, दर्द, पीड़ा का पहाड़ सी लगती है।
कभी लगती है मखमली फूलों का बिस्तर,
तो कभी कांटों भरी दुश्वार सी लगती है।
कोई कहता है ईश्वर का नायाब उपहार है ये,
पर मुझको तो ये जिंदगी उधार सी लगती है।
खिलती होगी कलियां और फूल महकते होंगे कहीं,
मेरी जिंदगी तो उजड़ा चमन शमशान सी लगती है।
कैसे कह दूं की बहुत खूबसूरत है ये जिंदगी।
तिनका तिनका बिखरा है, टूटे कांच की दीवार सी लगती है।
ये जिंदगी मुझको बेज़ार सी लगती है।
ये जिंदगी मुझको उधार सी लगती है।
हस्ती, खेलती, मुस्कुराती है किसी के आंगन में,
और किसी को ये बद्दुआ, बेकार सी लगती है।
कोई झोपड़ी में भी जिंदगी का जश्न मना रहा।
तो किसी को महलों में भी जिंदगी नश्वर सी लगती है।
सोचती हूं, कौन होगा, वो खुशनसीब, ज़हान में,
जिसको जिंदगी कृपा, उपहार, आशीर्वाद सी लगती है।
मैं तो बैठ जाती हूं गमों के मयखाने में यारों,
ये जिंदगी मुझे छलकती शराब सी लगती है।
काश कोई उठा देता पर्दा इस झूठ से,
तो मैं पूछ लेती बता जिंदगी तू मेरी क्या लगती है?
क्यों जिंदगी तू मुझे दुश्वार सी लगती है?
क्यों तू मुझे उधार सी लगती है?
संघर्षों का दिन कभी खत्म नहीं होता,
जिंदगी तेरी रातें सुनसान सी लगती हैं।
तेरे साए में आए या ना आए, सोचती हूं।
तू हर दिन तमाशा मेरा सरे बाजार करती है।
बता दे, क्या है तू ? ए जिंदगी!
क्यों तू मुझे जिंदगी उधार सी लगती है?
स्वरचित मौलिक रचना
दिव्यांजली वर्मा अयोध्या उत्तर प्रदेश