Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
8 Jun 2025 · 3 min read

सदन में उठाऊंगा...इस्तीफा दे दूंगा

पत्रकारिता संस्मरण 4

सदन में उठाऊंगा…इस्तीफा दे दूंगा

अफसरों और नेताओं में एक खूबी होती है। ये दोनों समय की नब्ज को बहुत अच्छे से भांपते हैं। कुर्सी पर बैठा अफसर भली भांति जानता है कि कौन नेता उसके पास क्यों आया है। नेता तुफैल में रहता है। वह अफसरों को नहीं भांप पाता। कई बार मात खा जाता है। इन दोनों के ही कारण जनता की सुनवाई प्रभावित होती है। नेता फरियादी से बोलता है… काम हो जाएगा। मैने कह दिया है। अफसर तो अफसर है। वह रात दिन ऐसे ही मामले डील करता है।
70-80 के दशक में दो धमकी बहुत चलती थीं। मैं इस मामले को सदन में उठाऊंगा। दो- मैं इस्तीफा दे दूंगा। ये धमकी आज भी चलती हैं। लेकिन कोई गौर नहीं करता। उस वक्त गौर किया जाता था। ‘नहीं…नहीं। सदन में मत उठाना। आपका काम हो जाएगा।’ अफसर नेता जी के आगे पीछे चक्कर लगाते थे। नेताजी पूरे भाव खाते थे। नेताजी ने सदन में न उठाया और न उठाना था। इस्तीफा को लें। यह बहुत बड़ी तोप हुआ करती थी। आप इस्तीफा मत देना। आपने इस्तीफा दे दिया तो…प्रलय हो जाएगी। लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। नेताजी के चमचे तब भी थे। आज भी हैं…हमारे नेता जी ने बोल दिया है..आपका काम नहीं हुआ तो इस्तीफा दे दूंगा। नेताजी इस्तीफा दें या न दें..इससे क्या फर्क पड़ता है? आज तक कोई लाल बहादुर शास्त्री नहीं हुआ।
इस्तीफा दे दो। यह भी प्रचलित जुमला है। यह सदाबहार है। तब भी चलता था। आज भी चल रहा है। विपक्ष कहता है, इस्तीफा दो। सत्ताधीश कहते हैं, क्यों दूं? अब कोई इनसे पूछे, इस्तीफा मांगने से होगा क्या! लेकिन राजनीति है। यहां वीर रस के कवियों से तेज मिसाइल दागी जाती हैं।

नेता जी ..फोन का तार तो जोड़ लो
काम और सुनवाई कैसे होती है। एक सच्चा और रोचक वाकया है। यहां मैं उन नेता जी का नाम नहीं लिख रहा हूं। वह दिवंगत हो चुके हैं। कई बार विधायक रहे। उनकी सर्व समाज पर बहुत अच्छी पकड़ थी। उनके सब सलाहकार हिन्दू थे। लेकिन राजनीति मुस्लिम और दलित वर्ग की थी। सब उनको बेहद प्यार करते थे। इसलिए सर्व मान्य नेता थे। प्रतिदिन सुबह और शाम उनका दरबार लगता था। लोग आते थे। लेटर लिखवाते थे। और चले जाते थे। नेता जी के सलाहकार मंडल में प्रोफेसर, रिटायर्ड अफसर, एक रिटायर्ड जज, वकील सब थे। जहां जैसी जरूरत। हिंदी अंग्रेजी में पत्र चला जाता था।
ऐसे ही एक दिन महफिल ए सुनवाई थी। फोन तब तक कुछ शुरू हो गए थे। ट्रंक कॉल से थोड़ी मुक्ति मिल चुकी थी। एक फरियादी आया…’नेता जी मेरा काम नहीं हुआ। आपका लेटर लेकर गया था। इंस्पेक्टर ने कहा..’नेताजी तो लिखते रहते हैं..! मेरे सामने आपका लेटर फाड़ दिया। ‘ । भरी महफिल में यह तो तौहीन थी। नेताजी को ताव आ गया। फोन लगाओ उसे। उनके सामने मेज पर फोन लगा था। एक ने फोन लगाया। रिसीवर कान पर लगाते ही नेताजी शुरू हो गए…’तुमको यहां रहना है या नहीं। मेरा नाम….है। मैं या तो इस्तीफा दे दूंगा। या राजनीति छोड़ दूंगा। तुमने मेरा लेटर फाड़ दिया। ठहर जाओ। इस मुद्दे को सदन में उठाऊंगा। इसका काम करो।’
फिर फरियादी की तरफ मुखातिब होकर बोले-काम हो जाएगा। कैसे नहीं होगा। फरियादी बोला- ‘खाक होगा। फोन का तार तो आपने लगाया ही नहीं ‘। नेताजी सन्न। दरबार सन्न। नेताजी उठे। फरियादी के साथ थाने पहुंचे। मुकदमा लिखवाया। यानि एक ही समय में नेताजी के दो रूप। आज पहला स्वरूप ज्यादा देखने को मिलता है। नेताजी के दरबार पहले से ज्यादा सुंदर, चमकदार और हाईफाई हो गए हैं। सबका आईटी सेल है। पक्ष हो या विपक्ष। अब तो पार्षद का भी है। लेकिन यह सोचना पड़ेगा..तब सर्किट हाउस क्यों आबाद रहते थे? आज क्यों नहीं? वहां क्यों सन्नाटा रहता है। राजनीति है। बदलती रहती है।

सूर्यकांत

Loading...