बिखरा हुआ अपना
गैरों से नहीं अपनों से बदला लेना सीख गये हैं।
ग़लती करना और दोहराना सीख गये हैं।
कहते है प्रतिशोध की अग्नि जिंदा जलाती हैं।
अपने से टूटने पर घुटन अकुलाती है जीवन।
इसमें जीना सीख गये हैं।
बिखरकर जीना सीख गए हैं,हम
खुद से मुकरना सीख गये हैं ।
अपनी आदत को संभालो यारो
बात तो सूझ-बूझ की नैतिकता मानवता की करते हो ।
संधि में भी संधि -संधि विच्छेद वाली बात लाते हो।
कभी तो अकड़ (अहंकार)कम करो ।
कितने टूटोगे, कितने बिखरोगे
अपनी निजता, स्वार्थ से
कैसा बीज बोओगे (बेबस ,उदास, लाचारी )
ना समझो कि क्यारी (श्रृंखला)
माफी वाली बातें
पृथ्वीराज को याद रखना,
मोहम्मद गोरी को कभी माफ ना करना।
वह बार-बार युद्ध में हारेगा
फिर भी अपना कायरता ना छोड़ेगा।
अनगिनत बार से फिर भी डटे रहे , पृथ्वीराज
गैर तो गैर अपने भी गद्दार रहे हैं।
तभी तो जयचंदों से मिलकर शासन करना आसन
रहा।
कभी मोहम्मद गोरी को 17 बार हरा कर
माफ कर देना महंगा मूल्य रहा।
माफी भी उतनी देनी चाहिए।
जितनी उसकी औकात हो
नहीं तो युद्ध जीत का जो मूल्य उपहार वो मिल चुका है आक्रांताओं से।
गैरों से नहीं अपनों से बदला लेना सीख गए।
कहां से चालबाज के इतिहास को दोहराना सीख गए।
– डॉ.सीमा कुमारी
,9-4- 21 की स्वरचित रचना जिसे आज प्रकाशित कर रही हूं।