"महुआ और स्त्री"
“महुआ और स्त्री”
महुआ की कमजोरी है ,धरती पर गिरना,
जैसे स्त्री की आदत है ,खुद को छोड़ देना।
हर मौसम में हँसती, खिलती,
पर अंततः मिट्टी की गोद में समा जाती है।
वो घर की टहनी पर झूलती है
सजावट की तरह,
पर जब वक़्त आता है,
चुपचाप गिर पड़ती है —
बिना कोई शब्द कहे,
बिना कोई शर्त रखे।
लोग कहते हैं —
“कमज़ोर है, टूट जाती है!”
पर कौन जाने —
वो टूट कर भी
किसी की रोटी बनती है,
किसी की पूजा की थाली में सजती है,
किसी के अधूरे जीवन को
अपना रस दे कर पूर्ण करती है।
वो जानती है —
उसका उठना नहीं,
उसका गिरना ज़रूरी है
दुनिया को सहेजने के लिए।
उसका त्याग
हर सुबह की पहली रौशनी में छुपा होता है,
उसका संघर्ष
हर शाम के थके चेहरे में मुस्कुराता है।
स्त्री —
महुआ की तरह
कमज़ोर नहीं,
बल्कि वो मिट्टी है,
जिसमें जीवन की जड़ें पलती हैं।
©® डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद “