सुख-शांति-न्याय-स्वप्न
सुख-शांति-न्याय-स्वप्न
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हम अपनों ने अपनों से बैर निभाया क्या समझा।
सोचा हमने बाजी जीती कैसा निपटाया क्या समझा।।
ऐसे कई शतकों से हम पर उभरते प्रश्न अनेकों हैं।
क्षणिक अहंकार की तुष्टि पर शाश्वत बाजी हारे क्या समझा।।
जहां धर्म नहीं था उसको हमने धर्म समझा ।
सत्य नहीं था उनकी वाणी को सत्य समझा।।
जो निरंतर मानवता का अहित चिंतन करते ।
बेतुकी अन्याय भरी बातों को न्याय समझा ।।
जिनका चिंतन दर्शन कुछ विचित्र अनोखा है ।
उनको निष्कपट गले लगा कर अपना समझा ।।
वे मानवता के द्रोही थे पर पवित्र व देवरुप हो गए ।
कितने जयचंद भी मिटे जिनने अपना समझा ।।
आज भी सनातन को मिटाने कितने लगे हुए हैं ।
वे षड्यंत्र करते रहे हमने उनको अपना समझा।।
इस कलि काल ने भी हमसे कैसा षड्यंत्र किया ।
अपने ही हैं मानकर समग्र राष्ट्र का नेतृत्व समझा ।।
फिर जयचंदों की कथा चरितार्थ हो गई भारत में ।
सो भोग रहे युग युग से वही भोगा क्या समझा।।
दोगलों आस्तीन के सांपों की गणना क्या कहें ।
दानवता के रक्षकों को राष्ट्र ने तारणहार समझा।।
अलतकिया का खेल अब भी चल रहा यहां पर ।
हमने अब तक इससे क्या पाया पर क्या समझा ।।
अब भी अगर हम नहीं समझ सके तो भारतवासी ।
अपना अस्तित्व मिटाने को तैयार रहो क्या समझा ।।
महाउदात्त विश्व संस्कृति के धारक तुम भरतजनों ।
सौगंध तुम्हें गुरु गोविंद की कृपाण लो क्या समझा ।।
माटी तुम्हें बुलाती है जो इस संस्कृति की थाती है।
तुम जाए लड़ो अरि सो औ जीत करो क्या समझा ।।
तू जान! जब तक इस धरती से अधर्म नाश न होगा ।
जगती में सुख शांति न्याय स्वप्न रहेंगे क्या समझा।।
विश्व परिवार की आस लिये अधर्मियों के काल हैं हम।
रहो संगठित नहीं दैन्यता नहीं पलायन संकल्प हमारा क्या समझा।।
स्वरचित मौलिक रचना
प्रो. रवींद्र सोनवाने ‘रजकण’
बालाघाट (मध्य प्रदेश)