पूर्णिका -04"नई सुबह की चाह"
एक नई हिंदी कविता:
“नई सुबह की चाह”
चुप हैं साँझ के रंग अभी,
नींद में डूबे हैं सब पंछी,
तारों की बातों में कुछ राज़ है,
रात के आँचल में साज़ है।
पर मैं तो खोज रहा उजास,
कोई नयी सुबह, कोई खास।
जहाँ न हो डर, न हो बेरंग,
हर दिल में हो मीठी तरंग।
धूप जब माथे को छू जाए,
हर कोना फिर मुस्कुराए,
प्यारे हों शब्द, मीठे हों बोल,
बिन मांगे ही मिल जाएं फूल।
चलो लिखें फिर नई कहानी,
जिसमें हो केवल प्रेम की वाणी।
हर आँख में हो एक सपना,
और हर दिल कहे—”मैं अपना”।
✍️📜जितेश भारती