पथ का पत्थर
पथ पड़ा पत्थर का टुकड़ा,
कहा मनुज से अपना दुखड़ा,
था कभी मैं पर्वत का प्यारा
तुंग होने का था दर्प हमारा,
था वह कितना विषम दिन,
हुई संध्या मुझसे अरुण बिन,
स्व हो या किया गया मेरा क्षरण,
हुआ दिन उसी से जीवन- मरण,
फिर क्या, इसने मारा, उसने मारा,
था कभी जो पर्वत का प्यारा,
इसका खाया, उसका खाया
घीस-घीस जीवन ने धूल चटाया,
क्रंदित पीड़ा कहूॅं मैं उससे?
जो अधिक और पाषाण है मुझसे ,
सुनने वाला मेरी व्यथा कौन?
हुआ भाग्य जब मेरा मौन,
पाषाण हृदय वाला मुझसे कहता,
पथ का पत्थर कितना निर्दय होता,
इसे गिराया, उसे रुलाया ,
कोमल पांव का रक्त बहाया,
पर,सच तो कुछ और ही भाई,
जीवन से रस की हुई विदाई,
निष्कलंक मैं कलंकी कहलाऊॅं,
सहानुभूति शून्य भी न पाऊॅं,
जीवन भर लोगों के पांव तले जीना है,
ठोकर खाना, रौंद , घूंट आंसू पीना है,
हो गया अस्तित्व ही रुखड़ा
पथ पड़ा पत्थर का टुकड़ा
उमा झा