आशियां

जल रहा आज जंगल कोई तो रोकें इसे
हांसिए पर आ क्या इंसानियत बोले
मूक हो चले हैं अधिकारों की बात करने वाले
मौन क्यों हो चुके हैं दम्भ भरने वाले
बीते वक्त पर जरा तो गौर करना
सांस को टूटना ओर बिखरना परिवार का
क्या हम भूल गये कोरोना के दिनों को
इन्हीं जंगलों ने बचाया था इंसान को
क्या नहीं धिक्कारता हृदय तुम्हें ही बताओ
क्या विदोहन ही सदा करते रहोंगे भाईयों
यूं अधर को मौन ना करते चलो
जंगल जमी के लिए कुछ तो जतन तुम करो
आज जंगल पुकारता है तुम्हें
सुनो ये नाद पशुओं का
आत्मा तक ना फाड़ दे कहीं
ज़िन्दगी की कहानी में कुछ तो अदा किरदार कर
जल हो या हो जंगल तू भी तो नाद कर
भूल मत ये वहीं आशियां
जहां से शुरू हुई थी हमारी दास्तां
कुछ जतन कर लें
टूट रहा है आशियां
कुछ जतन कर लें
टूट रहा है आशियां
सुशील मिश्रा ‘क्षितिज राज’