#स्मृति_शेष-

#स्मृति_शेष-
■ हमारा प्यारा “ब्रूनी”
[प्रणय प्रभात]
यह तस्वीर “ब्रूनी” की है। हमारे पहले पालतू श्वान की। जिसे श्वान कहने में संकोच होता है आज भी। वर्ष 1998 में आज (05 अप्रैल) ही के दिन दुनिया में आया। शिवपुरी निवासी मेरी बहिन पिंकी की सदस्य जर्मन शेफर्ड “जैरी” के गर्भ से। लेब्राडोर पिता के गुणों के साथ। जिसे महज 10 दिन की उम्र में श्योपुर ले आया गया। छोटे भाई पिन्नू द्वारा। ढक्कन वाली टोकरी में रख कर। आंखें भी नहीं खुली थीं ढंग से। डार्क ब्राउन शेड की वजह से नाम दिया गया “ब्राउनी।” जो अपभ्रंश होकर “ब्रूनी” हो गया।
आज उसका जन्मदिन है। ऐसे में उसकी स्मृति स्वाभाविक है। घर के सदस्य के रूप में 10 साल साथ जो रहा था वो। तब मोबाइल होता तो आज उसकी तमाम छवियाँ हमारे पास होतीं। ऐसे तमाम पल, जो चौंकने व बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करते रहे। आपको भी करें शायद। मन से पढ़ पाएं तो। साक्षी तो मोहल्ले से लेकर चौथाई शहर के वासी रहे ही हैं।
बताना उचित होगा कि मैं अपनी जीवन-यात्रा के एक-एक सच्चे सहयात्री, सहचर व सहयोगी को “कालजयी” बनाना चाहता हूँ। उनके बारे में सांगोपांग संस्मरण लिख कर। साहित्य साधक हूँ और जानता हूँ कि शब्द “ब्रह्म” हैं। नश्वर संसार में अनश्वर। जो अनादि काल से थे, अनंत काल तक रहेंगे। पढ़े और सुने जाते रहेंगे। अगली पीढ़ी सहेज कर रख पाई तो। अन्यथा “गूगल” तो है ही, अगली नस्लों तक पिछली बातें पहुंचाने के लिए। बस, इसी आस और विश्वास के बूते आगे बढ़ाता हूँ अपना आज का संस्मरण।
कुछ दुःखद अनुभवों के कारण पशु-पालन के विरोधी पापा के रहते एक जीव को पालना आसान नहीं था। पापा घर के बीच की मंज़िल पर रहते थे। लिहाजा ब्रूनी को ऊपरी मंज़िल पर छुपा कर रखा गया। रुई की बत्ती से दूध पिला कर। उसके घर में होने की भनक पापा को क़रीब एक माह बाद लगी। दो मिनट की अप्रसन्नता के बाद उन्हें भी मासूम ब्रूनी अच्छा लगने लगा। अब ब्रूनी की पैठ घर के हर भाग में थी। कभी किसी चीज़ को मुंह न लगाना उसका विशेष गुण था। अपने बर्तनों की उसे पहचान थी। खाने-पीने के समय की समझ भी। ज़ीने की चौकी पर विभिन्न मुद्राओं में आराम से बैठना व सोना उसे पसंद था।
बातों को एक बार में समझ जाता था। थोड़ा बड़ा हुआ तो रंग ब्राउन से ब्लैक हो गया। एकदम स्याह व चमकदार काला। सीने पर एक बड़ा सा सफेद सितारा। क़द-काठी बेहद शानदार। देख कर ही डर व ठहर जाते थे लोग। धमक ऐसी कि घर के सामने से होकर गुज़रने वाले सतर्क होकर चुपचाप गुज़र जाना बेहतर मानते। अकारण भौंकना या गुर्राना उसकी आदत में नहीं था। किसी को काटने का तो कोई सवाल ही नहीं। ऊपरी मंज़िल की रोस में रखी कुर्सी पर शान से बैठकर सड़क पर निगाह रखना उसे ख़ासा पसंद था। अब बताता हूँ कुछ अनूठे वाक़ये, जो आपको भी हैरान करेंगे।
मंडी से सब्ज़ी लाना और साफ-सफाई से काट कर तैयार रखना पापा की दिनचर्या का अंग था। शाम को ऑफिस से लौटते थे, टोकरी भर सब्ज़ी के साथ। चाय-पानी से निपट कर बारामदे में बैठ जाते सब्ज़ी लेकर। सामने ज़ीने में बैठा ब्रूनी उन्हें ताकता रहता। एक दिन पापा ने लौकी का एक टुकड़ा उसकी ओर उछाल दिया। उसने उसे मुंह में लिया, चबाया और गटक गया। पापा उसकी पसंद समझ गए और इसी दिन से कच्ची लौकी उसकी पसंदीदा खुराक़ बन गई। जिसके लिए वो हर शाम पापा का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा। लौकी के साथ गाजर उसे बहुत भाने लगी। आलम यह रहा कि किलो भर गाजर-लौकी उसके भोजन का प्रमुख तत्व बन गई।
इस आहार परिवर्तन से उसकी चमक और बढ़ गई। यक़ीन मानिए, उसने अपने जीवन काल में दोनों चीज़ें किलो में नहीं, क्विंटलों में मज़े से खाई। फ़ायदा यह भी रहा कि उसकी ख़ुराक़ में दूध घट गया, जो शायद हानिप्रद होता उसके लिए। अब उसकी पहचान शाकाहारी श्वान के रूप में हो गई थी। सन 2004 में पापा के निधन से पहले अस्वस्थता के चलते सब्ज़ी लाने का ज़िम्मा श्रीमती जी ने संभाल लिया और स्कूल से वापसी के बाद अगवानी का जिम्मा ब्रूनी ने। जिसे बेग में भरी गाजर व लौकी की गंध पहले से आ चुकी होती थी और वो दो पांवों पर खड़े होकर लिपटने लगता था उनसे।
वर्ष 2001 में श्रीमती जी सरस्वती शिशु मंदिर की दीदी से संविदा शिक्षिका हो गईं। पहली नियुक्ति शहर से 7-8 किमी दूर सड़क किनारे अजापुरा गांव के मिडिल स्कूल में हुई। वहां जाने के लिए खटारा बस पुल दरवाज़े के बाहर बड़ौदा रोड के बस अड्डे से पकड़नी पड़ती थी। एक दिन उन्हें स्कूटर से छोड़ने मंझला भाई अन्नू गया। ब्रूनी दबे पांव पीछे-पीछे दौड़ लिया। घर से बस अड्डे के बीच कई राहगीरों को अपनी रफ़्तार से धूल-धूसरित करते हुए।
उस दिन कुछ देरी के कारण श्रीमती जी रेंगती हुई बस में सवार हो गईं और बस के साथ ब्रूनी की दौड़ शुरू हो गई। इसका पता उन्हें तब चला जब ब्रूनी खातोली तिराहे के आगे पैट्रोल पम्प के सामने रुकी बस के सामने अड़ गया जो सामने से हटने को राज़ी नहीं था। माजरा समझ आने के बाद श्रीमती जी को बस से उतरना पड़ा। जो वापस श्योपुर लौटती एक बस से लौटीं। ब्रूनी बस के साथ दौड़ता हुआ आया। जो श्रीमती जी के आगे-पीछे नाचता हुआ घर लौटा। इसके बाद उसे चैन से बांध कर रखने का निर्णय लेना पड़ा। मुख्य द्वार पर जालीदार गेट लगवाना पड़ा सो अलग।
सन 2004 में पापा का 19 मार्च को स्वर्गवास हो गया। दो दिन तक ब्रूनी ने न कुछ खाया, न पियाँ। जबकि वो खाने-पीने को लेकर समय का पाबंद था। रात को जैसे ही “कहानी घर-घर की” सीरियल की धुन गूंजती, वो अपने कटोरे को खड़काना शुरू कर देता था। उसे इस धुन से खाने के समय का अंदाज़ा होता था। इसका खुलासा तब हुआ, जब एक दिन वो सीरियल की रिकॉर्डेड धुन बजाते ही एक घण्टा पहले कटोरा खड़काने लगा। खाने-पीने में न कोई नाज़, न कोई नखरा। जो हम खाते थे, वही उसे खिलाते थे। तब आज जितना ज्ञान कहाँ मिलता था कुकुर-पालन का। आप ताज्जुब करेंगे कि उसे कभी न कोई बीमारी हुई, न परेशानी। जिनका ज़िक्र आज इंस्टाग्राम पर एक्सपर्ट्स कर रहे हैं।
पापा के निधन के बाद तत्कालीन विधायक श्री दुर्गालाल विजय संवेदना प्रकट करने घर आए। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही उनका पहला सामना ब्रूनी से हुआ। उसने दो पैरों पर खड़े होते हुए अगले दोनों पंजे उनके कंधों पर रख दिए। इस अप्रत्याशित स्थिति जी से विधायक जी हतप्रभ रह गए। अच्छी बात यह रही कि उन्होंने ज़रा भी हड़बड़ी नहीं दिखाई व शांत भाव से खड़े रहे। संयोगवश यह नज़ारा 10 साल की बिटिया निक्की ने देख लिया। उसने तत्काल ब्रूनी का नाम लिया और वो चुपचाप एक तरफ खड़ा हो गया। इस कमांड से विधायक जी भी प्रभावित नज़र आए।
इस प्रसंग से ब्रूनी के डील-डौल का अंदाज़ा वो लोग आसानी से लगा सकते हैं, जिन्होंने अच्छी-ख़ासी क़द-काठी वाले श्री विजय को प्रत्यक्ष देखा है। साथ ही यह भी जान सकते हैं कि ब्रूनी कितना शांत व समझदार था। ज़्यादा लाड़ में आकर हम में से किसी के भी हाथ को जबड़ों में बिना काटे देर तक फंसाए रखना उसका आए दिन का काम था। ख़ास कर मेरे बहनोई भूपेंद्र जी के साथ। जिनके यहां उसने जन्म लिया था। बच्चे अक़्सर उसे छेड़ते थे, मगर वो कभी उग्र या व्यग्र नहीं होता था। चाहे कोई मुंह में हाथ दे या फिर पूंछ पकड़े।
बेटी को उससे बड़ा लगाव था। वो उसे वार-त्यौहार तिलक भी लगाती थी और राखी भी बांधती थी। वो भी इससे बड़ा खुश होता था। एक बार रक्षा-बंधन उसे आवाज़ लगाए बिना शुरू कर दिया गया। हम सब तब चमत्कृत रह गए जब वो अचानक कमरे में आया। पिछले दो पांवों पर बैठा और एक हाथ बेटी की ओर बढ़ा दिया, राखी बंधवाने के लिए। तिलक लगने व राखी बंध जाने के बाद एक कोने में जा बैठा आराम से। इसके बाद एक भी कार्यकर्म उसकी ग़ैर-मौजूदगी में कभी आरंभ नहीं किया गया।
वर्ष 2006 में बीच वाले भाई आनंद की बारात सबलगढ़ गई। भीषण गर्मी और उमस का मौसम था। तब एसी बसें होती नहीं थीं। दिन का सफ़र था, हर सीट “हॉट सीट” बनी हुई थी। बारातियों में शामिल ब्रूनी ने ठंडे पानी में तर टाट की बोरियों पर बैठ कर मज़े में यात्रा पूरी की। गले में पट्टे के बावजूद बिना किसी बंदिश या बंधन के। सबलगढ़ में रेलवे स्टेशन के पास वाली धर्मशाला पहुंचे तो स्थानीय कुत्तों ने दुम दबा कर उसका स्वागत किया। बिना शोर-शराबा या हंगामा किए। रात को बारात में भी वो निष्कंटक सबलगढ़ की सड़कों से गुज़रा। मज़ाल नहीं, जो किसी लोकल डॉग ने उसे कोई चुनौती दी हो। यह शायद उसकी ब्रीड व पर्सनालिटी का कमाल था।
अगली सुबह सब वापसी के लिए तैयार थे। रात को हमारे साथ घर (विवाह स्थल) से धर्मशाला लौटा ब्रूनी नदारद था। तलाश करने पर पता चला कि वो रात को ही श्रीमती जी के साथ घर चला गया। रात भर मंडप के पास रहा और फ़िलहाल विदाई की रस्म में मौजूद है। विदाई के बाद वो धर्मशाला लौटा, नवयुगल के साथ। उसके जलवे के गवाह बने, घराती-बाराती व सबलगढ़ के निवासी। तमाम की स्मृति आज ताज़ा हो जाए शायद। डेढ़ दशक पुरानी इस दास्तान को पढ़ कर।
एक उम्र के बाद हमें उसकी नैसर्गिक आज़ादी व आवश्यकता का ध्यान रखते हुए उसे पूरी तरह खोलना पड़ा। इसके बाद भी कोई एक शिकायत कहीं से सामने न आई। वो थोड़ी-बहुत देर के लिए इधर-उधर जाता और लौट आता। कभी किसी कुकुर ने न उसे छेड़ने की ज़ुर्रत की, न वो किसी से भिड़ा। अब उसकी पहचान मोहल्ले के बाहर सूबात चौराहे से नवग्रह मंदिर तक हो गई थी। काला होने के कारण धार्मिक मान्यताएं उसके लिए मुफ़ीद साबित हो रही थीं। यह और बात थी कि वो हर किसी का दिया कुछ नहीं खाता था। कुल दो लोग थे जिनके यहां वो नियत समय पर जा धमकता था।
पुरानी कचहरी के सामने अनिमेष प्रिंटर्स के संचालक महेश गौतम की दुकान पर पोहे और शंभू भाई के मंगोड़े उसे रोज़ परोसे जाते। यहां तक उसकी पहुंच मेरी वजह से बनी। कारण था श्री गौतम का अख़बार सांध्य त्रिनेत्र, जिसमें मैं सम्पादक था और ब्रूनी को मेरा ठिकाना मालूम था। इसके अलावा नवग्रह मंदिर के सामने एक मेडीकल स्टोर पर उसकी पूछ-परख कुछ अलग ही थी।
एक नियत वक़्त पर ब्रूनी उक्त मेडिकल शॉप पर जाता। सीधे काउंटर पर आसन जमाता। संचालक दिनेश सिंहल के हाथों से बिस्किट्स खाता और घर आ जाता। इसके अलावा न वो सड़क पर पड़ी कोई चीज़ खाता था, न घर में खुली रखी किसी चीज़ पर नज़र डालता था। इस आज़ादी के दुष्परिणाम हमारी कल्पना तक में नहीं थे। परिवार के सभी सदस्य ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त थे। लिहाजा उसकी देखरेख में कमी आ गई। उसे भी खुले में रहने का चस्का लग गया।
मोहल्ले में गीता भवन के तिराहे पर शारदीय नवरात्र में सजने वाले मातारानी के दरबार में उसकी भागीदारी किसी कार्यकत्ता से कम नहीं थी। दिन-रात मंच के आसपास भीड़ का हिस्सा बनता। आरती से आयोजन तक मंच के इर्द-गिर्द नज़र आता। आयोजन में सहभागी परिवार के सदस्यों के साथ। भूमिका एक अंगरक्षक व सुरक्षाकर्मी जैसी। मज़ाल क्या कि कोई आवारा जानवर या मवेशी फटक जाए मंच के पास।
पारिवारिक से सार्वजनिक हो चुके ब्रूनी का दिन घर के आसपास गुज़रने लगा। बावजूद इसके रात घर पर ही कटती थी। बारिश में बिजली की कड़कड़ाहट और दीवाली के धमाके उसके लिए कष्टप्रद थे। दोनों हालात में वो बेछूट घर में घुसता और पलंग के नीचे छिप जाता। ख़ुद को महफूज़ मान कर सो भी जाता। एक बार साल भर धमाकों के आदी मोहल्ले के एक दोपाये ने अपने में छिपे चौपाये को उजागर कर दिया। दीवाली से महीने भर पहले पास के घर के बाहर सोते ब्रूनी के कान के पास सुतली बम फोड़ कर। बेचारा ढाई महीने बहरा रहा। बाद में जैसे-तैसे ठीक हो पाया।
तमाम किस्से हैं, कहाँ तक लिखूँ? समापन की ओर बढ़ता हूँ अब। बात 2008 की है। बरसात से पहले पता नहीं कहाँ जाकर लड़ आया वो। गर्दन पर एक घाव लेकर। उपचार जारी रहा, ज़ख़्म भरने लगा। उसकी निगरानी भी की जाने लगी। दुर्योग से एक दिन वो हुआ, जिसे तमाम लोग अंधविश्वास से जोड़ कर देख सकते हैं, मगर हमें वो लगा जो हमें दिखा और एक घाव सा दे गया।
शाम के वक़्त एक विधर्मी महिला घर के सामने से गुज़री। प्रत्यक्षदर्शी श्रीमती जी के अनुसार उस औरत ने चोर-नज़र से इधर-उधर देखा और काग़ज़ में लिपटी कोई चीज़ ब्रूनी के आगे डाल दी। इससे पहले कि रोस पर खड़ी श्रीमती जी की मति काम करती, ब्रूनी उस चीज़ को खा गया। नतीज़ा अगले ही दिन सामने आ गया। ब्रूनी के पैरों में गांठें पड़ गईं। उसे चलने में दिक़्क़त आने लगी। उससे निजात दिला पाते, उससे पहले गर्दन का घाव फिर हरा हो गया। बारिश ने संक्रमण को लाइलाज़ बना दिया। पशु चिकित्सा के नाम पर तब भी मुफ़्त का वेतन पाने वाले मक़्क़ार ज़िले में पदस्थ थे। मर्ज़ न क़ाबू में आना था न आया।
शारदीय नवरात्र की पांचवीं दोपहर ब्रूनी की हालत पूरी तरह बिगड़ गई। खाना-पीना छोड़ दिया उसने। दवा तक गले से नहीं उतार पा रहा था वो। घर के अंदर निचली सीढ़ी के पास निढाल पड़ा था वो निरीह। दिल को बेधने वाली थी उसकी मर्मान्तक कराह। न जाने कितनी पीड़ा से जूझ रहा था वो बेज़ुबान। परिवार का एक-एक सदस्य उसकी वेदना से आहत था। समझ आ रहा था कि पापा किसी जीव को पालने के पक्ष में क्यों नहीं थे। दिल से बस एक ही दुआ निकल रही थी कि उसके प्राण निकल जाएं। उसे और ज़्यादा तकलीफ़ दिए बिना।
मुश्किल से कट रहा था हम सबका एक-एक पल। न उसे तड़पते, कसकते, आर्तनाद करते देखने का साहस था, न छोड़ कर जाने का मन। इसी शाम मातारानी के दरबार में पंचमी का विशेष आयोजन था। तत्कालीन ज़िला न्यायाधीश की धर्मपत्नी गायत्री परिवार के सदस्यों के साथ दीप-यज्ञ कराने के लिए आईं। हमने भी व्यथित हृदय से एक-एक दीप प्रज्ज्वलित किया। अपने प्यारे ब्रूनी की सद्गति की प्रार्थना के साथ। कार्यक्रम सम्पन्न होता, उससे पहले ब्रूनी की कराह पर विराम लग गया। मुक्त हो चुकी थी उसकी छटपटाती हुई आत्मा।
दीप-यज्ञ की सम्पन्नता व दल की विदाई के बाद बारी थी ब्रूनी को अंतिम विदाई देने की। उसकी निष्प्राण देह को चादर में लपेट कर किला रोड ले जाया गया। जहां एक गहरा गड्ढा खोद कर उसे दफना दिया गया। सबकी आंखें नम थीं। नवरात्रा समिति के सदस्यों की भी। जिनके महोत्सव का साल-दर-साल सहयोगी था वो बेज़ुबान, जो टोने-टोटके जैसी घृणित क़रतूत का शिकार बन गया। प्रयोजनवश उसे दर्दनाक मौत के मुहाने पर धकेलने वाली वो औरत दूसरी बार कभी नज़र नहीं आई। जो बदरंग सा सलवार-कुर्ता व दुपट्टा ओढ़े एक शैतानी मंशा के साथ आई थी।
ब्रूनी को ससम्मान विदाई के बाद घर लौटते समय क़दम निढाल थे। ज़हन में पापा जैसे भाव। ठान लिया था कि अब घर में दूसरा जीव कभी नहीं लाएंगे। उसकी याद में असहाय स्ट्रीट डॉग्स के लिए उस हद तक कुछ न कुछ ज़रूर करते रहेंगे जो सामर्थ्य में होगा। आत्मिक संतोष है कि जीव दया व सेवा के संकल्प का निर्वाह लगातार कर पा रहे हैं। तमाम लोगों को इससे भी कष्ट है। ख़ास कर उन्हें, जो अपनों के सगे नहीं हो पा रहे। पूरे 17 साल होने जा रहे हैं ब्रूनी को गए। उससे जुड़ी यादों को न जाना है, न जाएंगी। आज भी लगता है कि श्वान योनि में जन्म लेकर भी वो श्वान नहीं था। इस आभास का मूल आत्मीय लगाव भी हो सकता है। जो आज भी है। हर एक जीव से। ईश्वर इस संवेदना व सामर्थ्य को जीवन पर्यंत बनाए रखे। इसी प्रार्थना के साथ जय माता दी। जय राम जी की।।
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-सम्पादक-
न्यूज़&व्यूज (मप्र)