…बस इतना सा ख्वाब था….
मैने बस इतना चाहा था,
बस जीने की आजादी हो ।
अपने मन का जब मैं कुछ करूं ,
तो उस पर न कोई पांबदी हो।
ज्यादा की नही चाहत मुझको,
थोड़े में गुजारा कर लेती।
तुम कह दो मैं हूं साथ तेरे,
तुम संग वन में भी गुजारा कर लेती।
हे मन मंदिर के देव मेरे,
आंख मूंद हर बात मैं मांनू।
सही गलत मैं कुछ न सोचूं,
बस तेरा अनुसरण मैं करूं।
पर तुमको मेरी कद्र नही ,
मेरे एहसासों की कोई फिक्र नही।
कभी कभी ऐसा लगता ,
मेरे होने न होने से तुम्हे कोई फर्क नही।
सही गलत का फर्क यहां ,
प्रिय सभी को पता रहता है।
हर बात पे मैं ही गलत हूं,
ये सुनना मुझे न अच्छा अब लगता है।
बात बात पर रोक टोक,
हर बात में कमियां गिनाते हो।
क्यों शर्तों वाला प्रेम यह करके,
दिल के टुकड़े टुकड़े करते हो।
#शादी के कई साल बीत जाने के बाद पत्नी का पति से एक छोटा सा अग्रह कविता के रूप में।
रुबी चेतन शुक्ला
अलीगंज
लखनऊ