*ख़रीद फ़रोख्त*

लेखक डॉ अरूण कुमार शास्त्री एक अबोध बालक अरूण अतृप्त
ख़रीद फ़रोख्त
नहीं होता है आसान ख़रीद कर ले आना खुशियों को।
कहाँ आसान होता है खरीद कर लाना खुशियों को ।
मगर हर कोई हर रोज़ हर पल , डूबा है, आकंठ इसी कोशिश में।
ग़म नहीं पड़ते कभी किसी को लाने न आमंत्रण देने और न ही खरीदने।
उनकी न कोई इज्ज़त न आबरू, वे चले आते हैं बे झिझक बिना बुलाये बेशर्म बन कर।
हर पल हर क़दम ये हादसा होता है कभी मेरे साथ कभी आपके साथ कभी उनके साथ, कौन हैं ये उनके जिनके साथ लिखा तुमने।
ये उनके साथ वो लोग हैं जिनसे हम कभी मिले नहीं जिनको कभी देखा नहीं, जिनसे हमारा कोई वास्ता नहीं।
मग़र फितरत मेरी आपकी और उनकी इस मामले में बिल्कुल सत्य प्रतिलिपि।
जिन्हें लाने नहीं पड़ते ग़म, जिन्हें नहीं देना पड़ता आमंत्रण और न ही खरीदने पड़ते।
गमों का आचरण समदृष्टि सम कालिक, सम सामयिक, समवेत , समानुपातिक सभी के लिए।
नहीं होता है आसान ख़रीद कर ले आना खुशियों को।
कहाँ आसान होता है खरीद कर लाना खुशियों को ।
मगर हर कोई हर रोज़ हर पल , डूबा है, आकंठ इसी कोशिश में।
कमर टूट जाती है घर के बड़ों की ता जिन्दगी इसी जुगाड़ में कि कैसे बटोर लाएं एक मुस्कान ख़ुशी की ।
डूब जाते हैं गले तक क़र्ज़ में, कहाँ, चुका पाते हैं जो कमाते हैं, सब का सब चला जाता है दो वक्त की रोटी में।
दो कपड़ों को खरीदने में, और दो ग़ज़ जमीन में एक सिरा पकड़ते हैं तो दूसरा फ़िसल जाया करता है।
इसी कोशिश में।
नहीं होता है आसान ख़रीद कर ले आना खुशियों को।
कहाँ आसान होता है खरीद कर लाना खुशियों को ।
मगर हर कोई हर रोज़ हर पल , डूबा है, आकंठ इसी कोशिश में।
ग़म नहीं पड़ते कभी किसी को न लाने पड़ते न आमंत्रण देने पड़ते और न ही खरीदने होते ।
उनकी न कोई इज्ज़त न आबरू, वे चले आते हैं बे झिझक बिना बुलाये बेशर्म बन कर।
कभी कभी तो जबरदस्ती ज़ोर जोर से धकियाते हुए धमकाते हुऐ, जैसे हम हो उनके क़र्ज़ दार।
सदियों से