यादें
यादें
****
एक पिता
चुपचाप
अपनी बालकनी में बैठा
आकाश की ओर
काफी ध्यान से
शून्य में कुछ देख रहा था
अनंत आकाश को निहारते हुए
कभी उसके चेहरे पर
हल्की मुस्कान उभरती थी
कभी वह गंभीर हो जाता था
कभी दार्शनिक की भांति
अनवरत शून्य को टकटकी लगाकर
देख रहा था
बीते हुए पल उसके हृदय में
तरंगित हो रहे थे
बच्चों का बचपन
वो पहली बार खड़े होना,
लड़खड़ाते कदमों से चलना
माँ, बाबा बोलना
तुतली आवाजों में,
बच्चों की विकास यात्रा
जीवन के बिन बुलाए संघर्ष
वो कष्ट के फ्रेम में मढ़े हुए दिन
अपनों का विश्वासघात
सारी बातें
उसके मस्तिष्क में
अपने होने का
बोध करा रही थीं
सहसा सूर्य के साथ
डूबते बादलों नें
कहा-
‘मुझे दे दो वो सभी यादें
शाम हो गयी है,
मेरे साथ डूब जाएँगी
तुम्हारी बातें-कटु मधुर
तुम फिर से गढ़ना
नयी कहानियाँ,नयी यादें।’
-अनिल कुमार मिश्र
राँची,झारखंड।