हालात-ए-हाज़िरा का तज़्किरा

दिन गुज़रते हैं ,
साल गुज़रते है ,
कुछ रिश्ते टूटते हैं ,
कुछ नये बनते है ,
कभी हम खुश होते हैं ,
कभी हम ग़म में डूबते हैं ,
इंसानी फ़ितरत वक़्त के साथ रंग बदलती है ,
निय्यत -ए-क़ल्बी भी पर्दे में छुपी रहती है,
अख़्लाक से ज़ियादा क़द्र ज़रदारी और
रसूख़ की होती है ,
तर्क -ए-वफ़ा के किस्से सरे आम होते है ,
फ़रेबे इश्क के बयाँ सुबह- ओ-शाम होते हैं ,
लगता है, इस बदलते वक़्त में
फ़र्ज़ और ईमान के मा’नी बदल गये हैं ,
ज़मीर को दफ़्न कर लोग जाने कैसे जीते है ?
इंन्सानियत वुजूद लगभग खत्म सा होने लगा है ,
हैवानियत का जुनून सर चढ़कर बोल रहा है ,
लगता है क़यामत के दिन नज़दीक आ रहे है ,
तभी इंसां एक दूसरे के दुश्मन बने फ़ित्ना बरपा रहे है।