“संयम”
कहीं झमेला, कहीं घोटाला,
दुनिया एक तमाशा है।
कोई है, ग़मगीन कहीँ यदि,
कहीं ढोल सँग ताशा है।।
सँयत मन है कितना दुर्लभ,
पल तोला, पल माशा है।
सरिता, अविरल बहती रहती,
दिखती कहाँ हताशा है।।
सबकी अपनी रीत निराली,
सबकी अपनी भाषा है।
बैर, घृणा का हल भी पर,
कितनों ने यहाँ तलाशा है।।
यहाँ समेटूँ, वह भी पा लूँ,
मिटती कब अभिलाषा है।
प्यास समन्दर से कब बुझती,
लगती हाथ निराशा है।।
दुख और सुख हैं आते-जाते,
किसने समय तराशा है।
आती तम- नैराश्य मिटाने,
किरण रूप बन “आशा” है..!