ग़ज़ल
ये ज़िंदगी पतझड़ कभी मधुमास लगती है मुझे
दिन-रात जैसा इक ग़ज़ब अहसास लगती है मुझे//1
आँसू कभी देती हँसा आसान है मुश्क़िल कभी
पल-पल बदल ये रूप आती रास लगती है मुझे//2
हँसते हुए गाते हुए चलता चले जो राह में
उसके लिए तो ज़िंदगी बिंदास लगती है मुझे//3
जिसके लिए लिखता रहा मैं ज़िंदगी भर ग़ज़ल
मेरे लिए उसकी नज़र उपवास लगती है मुझे//4
कुछ भी लिखूँ वो ही अधूरा गीत लगता है उसे
फिर भी बड़ी मासूम-सी सुन खास लगती है मुझे//5
सबको मिलें अधिकार सब क़ानून ऐसे हर बनें
प्यारी यही सबसे ज़ुदा अरदास लगती है मुझे//6
‘प्रीतम’ सुनो अच्छा चुनो कम हो अगर छोड़ो फ़िकर
सिद्धांत इसकी ज़िंदगी निज दास लगती है मुझे//7
आर. एस. ‘प्रीतम’
सर्वाधिकार सुरक्षित ग़ज़ल