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10 Nov 2024 · 1 min read

बन्धनहीन जीवन :……

बन्धनहीन जीवन :……

क्यों हम
अपने दु :ख को
विभक्त नहीं कर सकते ?

क्यों हम
कामनाओं की झील में
स्वयं को लीन कर
जीवित रहना चाहते हैं ?

क्यों
यथार्थ के शूल
हमारे पाँव को नहीं सुहाते ?

शायद
हम स्वप्न लोक के यथार्थ से
अनभिज्ञ रहना चाहते हैं ।

एक आदत सी हो गई है
मुदित नयन में
जीने की ।

अन्धकार की चकाचौंध को
अपनी सोच की हाला में
मिला कर पीने की ।

व्याकुलताओं को
खोखली हंसी के लिबास में छुपाकर
उन्मुक्त उन्माद में जीने की ।

शायद
यही है शैली
आज के
बन्धनहीन जीवन को
जीने की ।

सुशील सरना /

71 Views
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