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27 Aug 2024 · 5 min read

*वेद का ज्ञान मनुष्य-मात्र के लिए: स्वामी अखिलानंद सरस्वती*

वेद का ज्ञान मनुष्य-मात्र के लिए: स्वामी अखिलानंद सरस्वती
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27 अगस्त 2024 मंगलवार । आर्य समाज मंदिर, पट्टी टोला, रामपुर में आयोजित त्रि दिवसीय श्रावणी पर्व के कार्यक्रम में दूसरे दिन प्रातः कालीन सत्र में स्वामी अखिलानंद सरस्वती जी ने जोर देकर कहा कि वेद समस्त मानव जाति के लिए हैं। यह किसी धर्म, संप्रदाय, जाति या राष्ट्र की सीमाओं में बंधे हुए नहीं हैं। इनका संदेश हर मनुष्य के लिए है।
आपने उपनिषद का एक मंत्र प्रबुद्ध श्रोताओं के समक्ष उपस्थित किया:

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा: मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥

विशेष ध्यान आकर्षित करते हुए आपने बताया कि सारे संसार को जब हम परमात्मा की संपत्ति मान लेते हैं, तब वह हमारी नहीं रह जाती। इसी दृष्टिकोण को अपनाते हुए हमें संसार की सब वस्तुओं का त्यागवृत्ति से भोग करना चाहिए। किसी दूसरे की वस्तु को ललचाई हुई नजरों से नहीं देखना चाहिए। इससे एक संतुलित जीवन दृष्टि तथा श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है। हमारी आंखें अच्छा देखें, कान अच्छा सुनें और मुख से जो उच्चारण हो; वह भी प्रीति पूर्वक होना चाहिए।

आपने बताया कि मनुष्य का जीवन अनेक सत्कर्मों के बाद हमें प्राप्त हुआ है। इसका एकमात्र लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। उसी के लिए हमें प्रयत्नशील रहना चाहिए। वर्तमान जीवन में हम मोक्ष की दिशा में जितना आगे बढ़ जाएंगे, वह यात्रा अगले जन्म में फिर उसी स्थान से आगे की ओर प्रस्थान करेगी। इस जन्म में भी हमें मोक्ष की ओर बढ़ने के लिए अगर अनुकूल परिस्थितियों मिली हैं, तो उसका श्रेय हमारी पिछली यात्रा के लंबे पथ को पार कर लेने के कारण ही संभव हुआ है।

मनुस्मृति का उल्लेख करते हुए आपने कहा कि कोई भी काम करने के बाद व्यक्ति उसके परिणाम से अछूता नहीं रह सकता। न केवल शुभ कर्मों का परिणाम मिलता है बल्कि अशुभ कर्मों का भी फल भोगना पड़ता है। हमारे शुभ कर्म कदापि भी अशुभ कर्मों को समाप्त नहीं कर सकते। इसलिए हर मनुष्य को मन से, वचन से और कर्म से कुछ भी पाप पूर्ण व्यवहार करने से बचना चाहिए। पहले मन अच्छी या बुरी दिशा में प्रवृत्त होता है। फिर वचन अर्थात कथनी में वह भाव प्रकट हो जाता है और अंततः जो मन सोचता है और वाणी कहती है, वही कर्म रूप में परिवर्तित हो जाता है। उस अच्छे या बुरे के परिणाम को व्यक्ति को भोगना पड़ता है। इसलिए मन की शुद्धि आवश्यक है, क्योंकि मन ही अच्छी या बुरी यात्रा का प्रस्थान बिंदु होता है।

महर्षि दयानंद के शब्दों में आपने दोहराया कि जो मननशील है, वही मनुष्य है। केवल अच्छा सोचने मात्र से ही हमें शुभ परिणाम प्राप्त हो जाते हैं। इस जीवन में प्रतिदिन रात्रि को सोते समय इस बात का चिंतन करना चाहिए कि कहीं हमसे कोई भूल तो नहीं हो गई है। अगले दिन के जीवन को और भी शुभ कार्य से भरा बनाने के लिए यत्नशील होना आवश्यक है। उपासना के द्वारा प्रभु को धन्यवाद अवश्य दिया जाना चाहिए कि उसने हमें इतना सुंदर गुणों से भरा हुआ शरीर दिया, जिसके कारण हम मोक्ष के पथ पर आगे बढ़ पा रहे हैं।

आज की कथा में आपने तीन अनादि और अनंत सत्ताओं की बात कही। यह हैं; परमात्मा, आत्मा और प्रकृति । आपने बताया कि यह तीनों सदा से हैं और सदा रहती हैं।

आपने राजा भर्तृहरि का उदाहरण भी दिया, जिन्होंने आज से 2081 वर्ष पूर्व अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को राजपाट सौंप दिया था। कथा यह है कि राजा भर्तृहरि गुरु गोरखनाथ जी के शिष्य थे। जब उनसे मिले तो गुरु गोरखनाथ ने यह सोचते हुए कि राजा भर्तृहरि एक महान राजा हैं, अतः लंबे समय तक इनका स्वास्थ्य अच्छा रहने से राष्ट्र को लाभ पहुंचेगा, अतः एक फल राजा भर्तृहरि को दिया। कहा कि इस फल को घर जाकर खा लेना। सदैव तुम युवा रहोगे। संयोग की बात कि राजा भर्तृहरि ने घर पर जाकर उस फल को अपनी पत्नी को दे दिया कि इस फल को खाकर तुम सदैव युवा रहोगी। आगे की कथा यह है कि राजा की पत्नी मंत्री से प्रेम करती थी । उसने फल मंत्री को दे दिया। मंत्री का भी राजा की पत्नी से प्रेम सच्चा नहीं था। वह एक वैश्या से प्रेम करता था । उसने फल वैश्या को दे दिया। वैश्या के भीतर कहीं न कहीं वैराग्य और राष्ट्रभक्त छिपी थी। उसने सोचा कि मैं अचल यौवन प्राप्त करके क्या करूंगी ? यह फल राजा भर्तृहरि को ही दे दिया जाए ताकि वह राष्ट्र का लंबे समय तक नेतृत्व करते रहें । अतः फल पुनः भर्तृहरि के हाथ में वैश्या के द्वारा पहुंच गया। राजा भर्तृहरि ने सारी कहानी का पता लगाया, तब इस संसार से उनका विश्वास उठ गया। उन्होंने तीन पुस्तकें लिखीं; वैराग्य शतक, नीति शतक और श्रृंगार शतक । इनमें संस्कृत भाषा में जीवन के अनुभवों का सार है।
वैराग्य शतक के एक श्लोक का सार श्रोताओं के समक्ष रखते हुए स्वामी अखिलानंद सरस्वती जी ने बताया कि राजा भर्तृहरि ने लिखा है कि हम भोगों को नहीं भोगते, भोग ही हमें भोग लेते हैं। इच्छाएं बूढ़ी नहीं होती हैं , हम बूढ़े हो जाते हैं। हम समय को नष्ट नहीं करते, समय ही हमें नष्ट कर देता है। यही जीवन है । अतः स्वामी अखिलानंद सरस्वती जी कहते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए यत्नशील होना ही मनुष्य के लिए उचित है।

महात्मा आनंद स्वामी द्वारा लिखित एक पुस्तक घोर घने जंगल में का उल्लेख आपने किया। इसमें बताया गया है कि अगर मनुष्य सौ वर्ष के जीवन में गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास को सही ढंग से गृहण नहीं करता है; तब वह क्रमशः बैल, कुत्ता और उल्लू की तरह जीवन व्यतीत करता है। आश्रम व्यवस्था इसीलिए है कि हम संसार में आसक्त न हों । अपितु संसार में रहते हुए संसार के भोगों से अनासक्ति की कला सीख जाएं।

स्वामी जी के प्रवचन से पूर्व उधम सिंह शास्त्री जी द्वारा सुंदर भजन प्रस्तुत किए गए। एक भजन का बोल था:
तेरा जीवन सारा बीत गया, नहिं तुझसे मनाया तेरा मीत गया

आपने कविवर नत्था सिंह जी द्वारा लिखित एक अन्य भजन भी प्रस्तुत किया, जिसके बोल इस प्रकार थे:

बाजी मार के जीवन की, न जीत सका तृष्णा मन की

वेद और उपनिषद के प्रकाश में मनुष्य जीवन को उसके सर्वोच्च लक्ष्य की ओर प्रेरित करने वाला आर्य समाज का यह कार्यक्रम प्रबुद्ध श्रोताओं के जीवन में चेतना जगाने में अवश्य ही समर्थ सिद्ध हुआ। कार्यक्रम में आर्य समाज के पुरोहित पंडित बृजेश शास्त्री जी तथा अध्यक्ष श्री मुकेश रस्तोगी आर्य की मुख्य भूमिका रही।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा (निकट मिस्टन गंज), रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451

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