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27 May 2024 · 1 min read

तनहा भी चल के देखा कभी कारवाँ में चल के

तनहा भी चल के देखा कभी कारवाँ में चल के
हर हाल में पड़ता है चलना सँभल सँभल के
कई बार समय बदला अच्छा बुरा बन बन के
कई लोग मिले अक्सर नज़रें बदल बदल के
क्या क्या न किया हमने उनकी ख़ुशी की ख़ातिर
हर बार नयी आयी कोई कमी निकल के
हर बूँद लफ़्ज़ बन कर काग़ज़ पे बिछ गयी है
आँखों में जब भी आए आँसू मचल मचल के
कंधों पे पर्वतों के नदियाँ पिघल रहीं हैं
कभी धूप खिलखिलाये कभी चाँद झुके ढल के
ख़ुशियों की क़ीमतों का सच्चा हिसाब देंगे
वो जो बड़े हुए हैं बर्बादियों में पल के
लफ़्ज़ों में तो कमी थी लहजों ने कह दिया सब
अपने पराये सबसे हम आ तो गए मिल के
ये रास्ता हँसता था जब हम सुबह चले थे
अब ये भी थक रहा है इस दिन के साथ ढल के
हाथों की लकीरों से दिल तक के रास्ते पर
कुछ लोग साथ आए कुछ रह गए निकल के
दिल बन गए संगेमरमर चिकने ,कठोर,भंगुर
लो जा रहे है पर्वत उनकी जगह पिघल के
हल्की सी तपिश ग़म की इतना बवाल तोबा
सोने से कभी पूछा क्यों हंस रहा है जल के
कंचन

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