Sahityapedia
Sign in
Home
Your Posts
QuoteWriter
Account
16 May 2024 · 1 min read

कर्ण कुंती संवाद

पाँव रुके मन नहीं हैं माने
ब्रह्म पहर में चली मनाने
सरिता के तट पर जा करके
फैलाई आँचल खुद धरके
सत्य कहूँ या मांगू भीक्षा
तेरे हाथों कुल की रक्षा
सब पांडव हैं तेरे भ्राता
नाग कन्या मैं तेरी माता

राज-माता सुनो मेरी बात
कई समर की बीती रात
अपमानों को जब मैं झेला
राजसभा में हुआ अकेला
छोड़े सब योग्यता का साथ
तब थमा दुर्योधन ने हाथ
परम मित्र का मेरा नाता
नाग कन्या तू मेरी माता

तब की घड़ी में मैं विवश थीं
कुल के गरिमा के मैं बस थीं
कौमार्यावस्था में जन्म दिया था
दिनकर से तुमको पाया था
लोक लाज से तुझको त्यागी
मैं कुंती हूँ बड़ी अभागी
रास्ता मुझे दिखाओ जाता(पुत्र)
नाग कन्या मैं तेरी माता

जो आँसू अब बहते हैं
उसको कैसे तब रोकी थीं
ममता की जननी तुम हो के
आग में मुझको झोकी थीं
माँ तुझको मैं वचन हूँ देता
चार को प्राण दान हूँ देता
अर्जुन-कर्ण मृत्यु का नाता
नाग कन्या तू मेरी माता

Loading...