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13 May 2024 · 2 min read

‘सच’ का सच

वत्स-
सच-सच बताओं ‘सच’
तुम सामने क्यों नही आते?
ढूंढ़ते ही रह जाते तुम्हें
पता नही तुम कहाँ छुप जाते।

धरा-आकाश-पाताल ब्रह्मांड ढूँढ़ते
पता नही तुम कहा समा जाते।
पॉलीग्राफ, ट्रूथसीरम, नार्कोटेस्ट
ब्रेन मैपिंग तक नजर नही आते।
कहते हो साँच को ऑच नही
फिर क्यों छिपकर रह जाते।

गीता, गुरुग्रंथ, बाईबिल, कुरान
ग्रंथ और कोई या संविधान।
शुद्ध अंतकरण, दीन-ईमान
या स्थापित विधि का विधान।
शपथ इन सबकी लेकर खाते
‘सदा सच बोलूंगा’ वचन हैं देते।
कार्यालय-न्यायालय, सदन तक
लिखते रहते ‘सत्यमेव जयते’।

‘सत्य पराजित नही हो सकता’
सभी जगह यही तो है कहते।
लेकिन, किन्तु, परन्तु देखो
सच को ही तो छुपाते रहते।

झूठ के पैर न होते, ना जमीं
कहते सच्चाई की ही जीत होती।
जब झूठ होता ही नही तो
फिर ये जीत किस पर होती?

सत्य ही सच है तो फिर
सच जानने दुनिया क्यों रोती।
सच्चाई की सच्ची जमीन पर
झूठ की फसलें क्यों बोती।

सत्य-
वत्स सच्चाई की जीत-हार क्या
बस सच्चाई; सच्चाई ही होती।
जैसे प्रकाश होना न होना होता है
अंधेरा जैसी कोई चीज नही होती।
वत्स प्रकाश एक फोटान कण
और किरण इनर्जी पैकेज होती।

और अंधेरा ?? कुछ भी नही
ठीक जैसे झूठ और जैसे भूत।
दोनों घुसे होते दिमागों में
विना वजूद बिना सबूत।
मैं तो सदा सामने ही रहता हूं
वत्स तुम देख ही नही पाते।
अगर देख भी लेते हो तो
जान-बूझकर अनदेखा कर जाते।

सच का पता लगाने को
लगा सीसीटीवी कैमरा,दूरबीन।
हर तरह से तुम कर लेते
जांच-पड़ताल,शोध-खोजबीन।
हाँ ये सच है की तुम
देखने की कोशिश तो कर लेते।
पूर्वाग्रह, सीमित-संकुचित दृष्टि से
पूरा सच नही देख पाते।
कभी सच देखते भी तो
कहने-सहने में कतरा जाते।

मैं तो सच्चाई का बोलबाला
रखते हुए खूब बोल रहा हूं।
सच की जितनी परतें चाहो
उतनी परतें खोल रहा हूं।
अदृश्य होऊ पर असत्य नही
अकाट्य हूं पर अस्पष्ट नही।
अभय हूं अमल-अटल हूं
तुम करो भ्रमित-लंबित मैं भ्रष्ट नही।

सृष्टि ही सत्य, सत्य ही सृष्टि
सच्चाई हवाओं में घुली हुई है।
इस धरती से आकाश तक
स्वंय को सिद्ध करने तुली हुई है।
सच तो शिखरों से ऊँचा
सदा-सदा स्थापित होता।
वो सत्यवान वो सतप्रार्थी
शिखरों पर आसीत होता।

सच तो सागर से गहरा
अनन्त गहरे समाये रहता।
जो हर हाल हरदम, हरपल
हर ओर ही छाये रहता।
सच को देखना ही नही
दिखाना भी जरूरी होता।
सच को जानना ही नही
मानना भी जरूरी होता।
सच तक पहुंचना भी और
पहचानना भी जरूरी होता।

नीति-न्याय, धर्म-कर्म,आचरण
सत्य ही सबकी धूरी होता।
सत्य कटु होता,सत्य पटु होता
सत्य ही होता है अंतिम।
सत्य ही शाश्वत चमके जैसे
घोर निशा में नभ-नक्षत्र रक्तिम।
~०~
मौलिक एवं स्वरचित : कविता प्रतियोगिता
रचना संख्या-२३. मई २०२४.©जीवनसवारो

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