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24 Apr 2024 · 1 min read

बर्फ़ के भीतर, अंगार-सा दहक रहा हूँ आजकल-

बडा शर्मसार हो रहा हूँ मैं, ख़ुद से आजकल,
फिर उन्हीं की याद में खो जाता हूँ आजकल।

बड़ी नख़वत से पी लिए थे हम जहर-ए-ज़फ़ा,
वक़्त-बे-वक़्त बीमार पड़ने लगा हूँ आजकल।

छोड़कर नाम उनके ख़ातिर तख़ल्लुस पे आ गए,
तख़ल्लुस भी दिन-ब-दिन बदल रहा हूँ आजकल।

बड़ा गु़रूर था हमें अपनी सुलझी हुई फितरत पर,
बर्फ़ के भीतर अंगार-सा दहक रहा हूँ आजकल।

रोज़ो-शब नई नज़्म कहता हूँ, मगर लगता है,
हर रोज़ एक ही क़लाम पढ़ रहा हूँ, आजकल।

फिर कोई बात है मसला है सिलसिला ज़रूर है,
हूरों को भी, नज़र अंदाज़ कर रहा हूँ आजकल।

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