कौन्तय
रण के उस क्षण में कौन्तेय शिथिल हो जाते हैं,
जब सम्मुख अपने ही अपनों को पाते हैं।
अन्तर्मन में ज्वालामुखी सा जोश उमड़ आता है,
पर नेत्रों पर धुंधलका सा छा जाता है।
कोदण्ड कर से छूटने को व्याकुल हो जाता है,
जब वात्सल्य पितामह की छवि मन में आता है।
कैसे शर चलाऊँ राधेय पर, प्रश्न विकट हो जाता है,
धर्म और स्नेह का बंधन मन को उलझा जाता है।
इस विडंबना के पल में नेत्र कुछ न देख पाते हैं,
अर्जुन स्वयं को बस मौन में डूबा पाते हैं।
तभी मधुसूदन मुस्काते, वाणी में अमृत बरसाते—
“कर्म ही तेरा धर्म है, परिणाम की चिंता त्याग,
अधिकार बस कर्म पर है, मत फल की आस में भाग।
क्षत्रिय का मान है रण, अन्यथा जीवन व्यर्थ होगा,
अन्याय के पक्ष में मौन भी अधर्म का भागी होगा।”
वाणी से उठी वह ज्वाला, संशय सब बहा ले जाती,
अर्जुन पुनः कोदण्ड उठाते, रणभूमि सज जाती।