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19 Mar 2024 · 1 min read

"भोर की आस" हिन्दी ग़ज़ल

सिलसिला गुफ़्तगू का, कुछ तो, चलाते रहिए,
प्रीत की, पेँग भी, हर रोज़, बढ़ाते रहिए।

होँगी काफ़ूर, शिद्दतेँ भी, सोज़-ए-दिल की,
सुनें उनकी, तो कुछ, अपनी भी, सुनाते रहिए।

कोई कर दे, कभी मेघों से गुज़ारिश मेरी,
आसमां पे, बिना मौसम के भी छाते रहिए।

भूल जाना भी, हसीनों की इक अदा ठहरी,
उनको हौले से कभी, याद दिलाते रहिए।

इश्क़े-जज़्बात, ख़ुदकुशी न कहीं कर बैठें,
खाद-पानी भी कभी, उनको पिलाते रहिए।

सुना है, वक़्त, हरेक चीज़, बदल देता है,
दिल मिले या न मिले, हाथ मिलाते रहिए।

उज़्र है, आपको जो, रूबरू आने से, मेरे,
कम से कम,स्वप्न मेँ,हर शब को तो आते रहिए।

शमा की लौ भले, मद्धिम सी हुई जाती है,
भोर होने को है, “आशा” तो, जगाते रहिए..!

काफ़ूर # ग़ायब होना, to disappear
शिद्दतेँ # तीव्रता, गहराई आदि, severity, depth etc.
सोज़-ए-दिल # दिल का दर्द, agony of heart
उज़्र # एतराज, objection
शब # रात, night

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