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11 Feb 2024 · 1 min read

11, मेरा वजूद

अक्सर निहारती हूँ…
खुद को आईने में,
आज देखा तो…
पलभर के लिए लगा…
मैं कहाँ खो गई?
वक़्त की तपीश से पके बालों
को..
अक्सर रंगों से ढ़कती रही,
पर चेहरे की झुर्रियाँ….
कहीं हल्की तो कहीं गहरी हो गई,
ऐसे लगा मानो मैं इनमें अपना वजूद खो गई,
मासूमियत, चंचलता और
अल्हड़ता खोने से मै मायूस हो
गई।
पलभर के लिए तो मैं…
बहुत घबराई,
अगले पल टटोला अपने ही अन्तर्मन को,
मासूमियत परिपक्वता में परिवर्तित हुई और…
चंचलता यही छिपी रह गई।
फिर लगा…
चेहरे की झुर्रियाँ धूमिल हो गई,
और …
अपनी ही मुस्कान में ‘मधु’
“अपना वजूद” पा गई फिर से…
आईने में खुद को निहारती ही रह
गई!!

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Books from Dr .Shweta sood 'Madhu'
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