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4 Jun 2023 · 1 min read

आईना

आईना वही रहता है,
किंतु चेहरे बदल जाते हैं अक्सर,
जिन पर होता है भरोसा,
वही दगा दे जाते अपना कहलाकर।
…………..
साथ निभाने और साथ में जीने -मरने की,
कसमें तो करते हैं बहुत ज़्यादा,
परंतु एक हवा का क्षणिक झोंका भी,
ताश के पत्तों की तरह सब कुछ बिखरा देता है,
रह जाती हैं तो सिर्फ यादें और यादों से निर्मित किले,
इस दुनिया में कोई सगा नहीं होता है,
सिर्फ अपनी परछाई के,
जो चलती है सुख-दुख में साथ इन्सान के।
………………
भाई , बहिन, पति, पत्नी, औलादें,
सब होते हैं मतलब के यार,
स्वार्थ निकलते ही,
सब अपने-अपने रास्ते हो लेते हैं,
साथ नहीं छोड़ती तो वह है परछाईं,
इंसान का आईना है परछाई,
…………..
सुख दुःख का हिसाब है उसकी परछाईं,
अक्सर इन्सान जिन के लिए पाप कर्म करता है,
वही एक दिन उसे शमशान तक पहुंचा देते हैं,
किंतु पापाचार करते,
वह क्षणभर भी चिंतन नहीं होता कि,
इसका दुष्परिणाम क्या होगा?
इस पाप का भागी उसके साथ कौन बनेगा?
जवाबदेही आखिरकार किसकी होगी?
…………….

पाप करते समय वह भूल जाता है,
ईश्वर की अदालत को,
धृतराष्ट्र बनकर सीमित हो जाता है अपने आप में।
हाइपरटेंशन, डाईबीटीज और अनिद्रा जैसे कई,
शमशान के दोस्त बना लेता है अपने।

घोषणा – उक्त रचना मौलिक अप्रकाशित एवं स्वरचित है। यह रचना पहले फेसबुक पेज या व्हाट्स एप ग्रुप पर प्रकाशित नहीं हुई है।

डॉ प्रवीण ठाकुर
भाषा अधिकारी
निगमित निकाय भारत सरकार
शिमला हिमाचल प्रदेश

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