गुमशुदा
मेरा एक अज़ीज़, एक मेरा हमसफ़र,
न जाने कहाँ चल दिया छोड़कर,
लड़कपन से मैं और मेरा वो साथी, थे कुछ ऐसे जैसे,
दो जिस्म एक जां थी,
सफ़र पर भी हम साथ निकले थे एक दिन,
वो भीड़ में खो गया हाय लेकिन,
कहीं जो किसी को कभी मिल पड़े तो, झलक सी भी उसकी कहीं दिख पड़े तो,
इसी मोड़ पर उसको लौटा ले आना ,
है अपराध जीवन जो वो साथ हो ना,
कुछ उसकी पहचान तुमको बता दूं, फ़ितरत से उसकी वाकिफ़ करा दूं,
दिन के उजाले सा वो गोरा, उजला,
पूनम के चंदा सा मुखड़ा सलोना,
आँखों में उसकी नमी भी है लेकिन, होठों पे रहता है सच का भी शोला,
बदनाम रातों, झुठलाई सुबहों से, कहीं दूर का भी,
नहीं उसका नाता,
कलियुग का वो भीष्म है उसकी नियति,
वही है जो भीष्म पितामह की भी थी,
है तीरों की शैया स्वीकार उसको,
फूलों का बिस्तर नहीं उसको भाता,
मखमल के जूते नहीं वो पहनता, ऐश्वर्य के पंखों पर वो नहीं उड़ता,
यथार्थ की धरती पर नंगे पांव रखता,
वो पथरीली राहों पर बेरोक चलता,
न जाने कहाँ कौन से मोड़ पर वो, मुझे छोड़, गुमराह सा कर गया है,
मुझे कोई मेरा वो ईमान ला दे,
गुमराह होने से पहले बचा ले।