रावण दहन
जलते हुए दशानन ने पूछा क्या तुम में राम कोई,
जो मुझको आग लगाते हो?
प्रतिउत्तर में सुन रावण ऐसा होता है आखिर क्यों।
अहंकार त्रेतायुग में या हो घमंड इस कलियुग में,
केवल जन्मेगा रावण ही, कुछ और कदापि नहीं होगा,
एक प्रकांड विद्वान, भक्त शिव का अनन्य, साधक, पूजक,
स्वयं सहोदरा प्रेम विवश, बदला लेने अपमानों का,
कर लिया अपहरण सीता का?
थी अगर कहीं सामर्थ्य दशानन,
करते युद्ध, पराजित करते राम लक्षमण दोनों को,
निर्दोष जानकी को हर के क्या पौरुष हार नहीं गये तुम?
अहंकार ही था जिसके वश क्रोधांध हो कर तुमने,
निज अपने हाथों ध्वंस किया निज शौर्य, वीरता का रावण,
सीता का सत रहा अखंडित स्वयं जानकी के सत से,
एक सती नारि का तेज सहन ना कर सकता था तू रावण,
अपने असफल प्रयासों को मत संयम की संज्ञायें दे,
ना ही अपने हठयोगों को शिव भक्ति की महिमाएं दे,
शिवभक्त लीन हो ओम नाद में परब्रह्म पा लेता है,
नहीं कदापि निर्दोष नार को अपह्रत कर, सर्वस्व युद्ध में स्वाहा कर,
लीला विनाश की करता है,
यदि “विद्या ददाति विनयम “सच है, जो कि है,
तो तेरी वो छद्म विद्वता आसुरी शक्ति से हार गई,
जब हुआ सामना मर्यादापुरुषोत्तम की क्रोधाग्नि से,
तब दशमी विजया हुई विजय सच ने असत्य पर थी पाई।
ना सही राम हम में कोई, संकल्प शक्ति से तुझ जैसा
हर रावण नष्ट करेंगे हम,
मर्यादा हर रक्खेंगे हम।