मिट्टी का दिया
काले घुप्प अंधेरों से तन्हा लड़ता मिट्टी का दिया,
जब भी तेज़ हवाएं आईं,कभी किन्हीं भी दो हथेलियों की एक ओट न इसने पाई,
थक कर बुझने को हो आता, फ़िर जल उठता नन्हा दिया,
किसी महल या मंदिर की सीढ़ी भी इसे न रास आई,
किसी ग़रीब की कुटिया के कोने में जलता नन्हा दिया,
हो सकता है किसी वक्त ये बियाबान, सुनसान अंधेरे,
बढें, जज़्ब कर लें इसकी लौ,
इसका वजूद भी मिट जाए और,
जीत अंधेरों की हो जाए, पर,
हार-जीत की उलझन से नित्तान्त परे-नन्हा सा दिया…