अनमोल पल
अपने और तुम्हारे बीच,
स्वतः, सहज प्रस्फुटित पलों को-क्या नाम दूं?
कोई नाम दे कर रिश्ते की मर्यादा में क्यूँ इनको,
मैं सीमित, प्रतिबंधित कर डालूं?
सागर की गहराई या आकाश की ऊंचाई से-
इनकी नाप-तौल ना जोड़ो।
सखि! निःसीम गगन में इनको -मुक्त विहग सा ही उड़ने दो।
रिश्तों की सीमा -रेखा में इन्हें ना बांधो क्योंकि अक्सर ,
रिश्तों की गरिमा, गरीयता-ठहरे जल सी विकृत हो कर,
जीवन को दुरूह कर देती।
इन गुनगुने पलों की ऊष्मा, जल प्रवाह सी ही बहने दो,
इस तृषार्त मन की मिट्टी को, बस! यूं ही नम हो जाने दो,
इन्हें आषाढ़ के प्रथम मेघ की,रिमझिम रस फुहार सा मेरे,
मन में और मेरे जीवन में,
बरस बरस रच बस जाने दो….