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24 Oct 2022 · 2 min read

कैसे कहूँ....?

शीर्षक – कैसे कहूँ…?

विधा – कविता

परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर,राज.
पिन – 332027
मो. 9001321438

कैसे कहूँ ….?
ये जलसे मुझे स्वीकार है
कैसे कहूँ ….?
ये रंगीन रोशनी का आकर्षण
मुझे अस्वीकार है नित्य।
बचपन में चाह बेसुध थी
टिमटिमाते दीपों के चारों ओर अंधेरा
क्षणभर के प्रकाश की बैचेनी
और इसी के साथ
होठों पर पड़ी सूखी पपड़ियाँ
मन अवसादग्रस्त होकर रोता
आत्मा का हनन अभाव में होता
हाथ की तंगी की व्यवस्था
घनीभूत पीड़ा में जकड़ती।

कैसे कहूँ….?
ये आज के नये चमकदार वस्त्र
स्वीकार है मुझे …!
ये मिठाईयों का मिठास
अस्वीकार है नित्य मुझे।
ये बधाईयों के सिलसिले
नफरत जगाते है हमेशा
चमकदार चेहरें कठोर है।
वाणी की दीनता का सुख
नित्य आनंद देता अभिजात्य को।
वाणी की फटी झोली में
दुख के छेद है
कातर नेत्रों की भाषा
पैसों की खनक में नहीं सुनती।

कैसे कहूँ….?
बचपन के अभाव को आज पूरा कर
सब कुछ स्वीकार कर लूँ।
अपनी वो स्थिति स्वीकार है
स्वीकार्य ही प्रेम और सुख देता।
किन्तु! अवसर बदलने पर अवसाद
छोड़ कर परिभाषा में ढल जाती
दुनिया की नई जीवनशैली।
जीवन निर्माण के तत्वों को
एक सुख के भ्रम में कैसे मिटा दूँ।

कैसे कहूँ….?
ये उत्सवी पसंद लोग पसंद है मुझे
ये औपचारिकता नहीं ढो सकता
कदापि समाज स्वीकार नहीं
जो गिने चुनें के इर्दगिर्द घूमे।
घर-घर के चूल्हें की बैचेनी
जब तक टूटेगी नहीं
तब तक मुझें ये ठंडी होती आग
चूल्हें में नहीं सुलगानी
ये आग पेट में उठानी है
लपट उठानी है।
जिसकी तेज लौ में
हाथों की तंगी भी जले
और हाथ पर प्रकाश भी पड़े।

कैसे कहूँ….?
उन बधाई को स्वीकार करूँ
जिसकी औपचारिकता को समाज
युगों से ढो रहा है
मैं बचपन से देखता रहा हूँ आज
खाली जेब की पीड़ा में
आदमी क्या ठूस सकता है?
केवल आदर्श और नैतिकता के।

कैसे कहूँ….?
चावल की तरस की ओट में
इतना बड़ा हुआ हूँ
आज चावल है पर खुशी नहीं
जब खुशी थी तब चावल नहीं।
ये द्वंद्व की पीड़ा मेरी जकड़न नहीं।
मैं जानता हूँ नहीं खिला जो फूल
बसंत बहार की मादकता में
पर जब भी खिला स्वीकार करना
सहर्ष अभिवादन करना।
ये न तो फूल है न बसंती मौसम
ये दीनता पर अभिशाप है
जो चमकता है।

कैसे कहूँ….?
अभिजात्य संस्कार स्वीकार है।
मुझे अभिजात से नफरत नहीं
पर अस्वीकार है उनका समाज
उनकी वो खोखली बातें जिनमें
सिर्फ काम भाव की तुष्टि के सिवा
कोई शुद्ध कर्म नहीं।
मुझे प्रिय है वो चूल्हें
जो मेरे घर के चूल्हें के समान
खोखले है और ठंडे भी।
बस इन्हें भड़काना नहीं
प्रज्वलित कर इतना ही ज्वलित करना
भूख में पेट कटे नहीं
भविष्य में भूख को पकाये।

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