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24 Aug 2022 · 1 min read

ग़ज़ल

ग़ज़ल
वज़्न – 212 212 212 212

जिस्म मिट्टी हुआ रूह जाती रही
फिर न दीपक रहा औ’र न बाती रही ।

उसको हर हाल में ग़म छिपाना ही था
तो हँसी का मुखौटा लगाती रही ।

नाम बदनाम तो लकड़ियों का हुआ
पर हवा ही चिता को जलाती रही ।

आशियाने तलक पंछी उड़ना तो था
धूप लेकिन परों को जलाती रही ।

भूल जाने की कोशिश तो की थी बहुत
बेवफ़ा की मगर याद आती रही ।

– अखिलेश वर्मा
मुरादाबाद
9897498343

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