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23 Aug 2022 · 1 min read

ग़ज़ल

ग़ज़ल….

आवाज़ भी नहीं अब देती सुनाई शायद
जनता की कर रहे हैं वो रहनुमाई शायद ।

बुझते ही लौ के दीपक अपना वज़ूद खोया
यूँ दोस्ती दिये ने लौ से निभाई शायद ।

धुँधला सा अक्स उसका रहता है जहन में बस
तस्वीर भी किसी दिन देगी दिखाई शायद ।

बेचा ज़मीर अपना ख़बरें बदल के छापीं
अख़बार से लगी थी थोड़ी कमाई शायद ।

वो शख़्स मुफ़लिसी में आखिर मरा तो कैसे
कुछ देर से ही उसकी आयी दवाई शायद ।

– अखिलेश वर्मा
मुरादाबाद

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