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22 Aug 2022 · 1 min read

ग़ज़ल

1222 1222 122
ग़ज़ल

मैं जब तेरे मुक़ाबिल देखता हूँ
यक़ीनन ख़ुद को बातिल* देखता हूँ ।

जो मज़हब के मसाइल देखता हूँ
पढ़े लिक्खे भी जाहिल देखता हूँ ।

भँवर में डूब जाना तय है मेरा
मगर फिर भी मैं साहिल देखता हूँ ।

जरासीमों को जड़ से ख़त्म कर दे
नहीं ऐसा फिनाइल देखता हूँ ।

जमा कर कर के रक्खी थीं उमीदें
हुआ कुछ भी न हासिल देखता हूँ ।

– अखिलेश वर्मा

*बातिल – ग़लत , बेकार

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